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धन्य - चरित्र / 147 प्रत्युत अशुभ कर्मों की वृद्धि ही होती है और शुभ कर्मों का अशुभ कर्मों में संक्रमण हो जाता है। रस हानि होती है । अतः अव्याकुल होकर सम्मुख भाव से सहन करना चाहिए, क्योंकि कर्म जड़ होने से उसमें करुणा भाव नहीं होता।'
इस प्रकार विचार करके पिता को पूछा - "तुम तो नये दिखायी देते हो। तुम लोग कौन हो? कहाँ से आये हो? कौन - सी जाति है ? इन स्त्री-पुरुषों का और तुम्हारा क्या सम्बन्ध है?'
इस प्रकार पूछने पर पुण्योदय की प्रबलता के वश से विविध रत्न- सुवर्ण आदि के आभरण की चमक के विनिमय से धन्य को नहीं पहचान पाने के कारण धनसार अपनी जाति-कुल- वंश आदि को छिपाते हुए अवसरोचित यत्किंचित प्रत्युत्तर देते हुए बोला- “स्वामी! हम वैदेशिक हैं । निर्धन होने से आजीविका के उपाय को ढूंढ़ते हुए आपके पुर में आगमन - मात्र से शुभ होनेवाली आपके परोपकार की व्यतिकर को सुनकर उसी दिन से यहाँ आकर सुखपूर्वक अपनी आजीविका करते हैं। प्रति प्रभात में उठकर आपको आशीष देते हैं- चिरकाल तक जय प्राप्त करो। चिरकाल तक आनन्द प्राप्त करो । चिर काल तक जन - मेदिनी का पालन करो, क्योंकि हमारे जैसों के तो आप ही जंगम कल्प वृक्ष हो ।' इस प्रकार के चाटु वचनों को सुनकर विचार करने लगा - "अहो ! धन का क्षय होने पर मति का भी कैसा विभ्रम हो जाता है ? जन्म से मुझे पाला है, पर अपने आत्मज को नहीं पहचान पाये । शास्त्र में जो कहा है, वह सत्य ही जान पड़ता है कि
तेजो लज्जा मतिर्मानमेतत् यान्ति धनक्षये ।
अर्थात् तेज-लज्जा-मति - मान ये सभी धन के साथ ही चले जाते हैं। जिस प्रकार मतिमूढ़ पशु अपने पुत्र के बलद बन जाने पर उसे नहीं पहचान पाते हैं, वैसे ही ये वृद्ध मुझे नहीं पहचान पा रहे हैं। अभी दरिद्रता के कारण लज्जित होते हुए ये अपने वंश आदि को छिपा रहे हैं, क्योंकि श्री - विहीन तारे दिन में अपने आप को कैसे दिखायें? अतः मैं भी अपने आप को प्रकट नहीं करूँगा । समय आने पर ही बताऊँगा, क्योंकि अकाल में पथ्य भी रोगियों के विनाश के लिए ही होता है ।'
इस प्रकार विचार करके मौन रहकर कुछ स्नेह प्रदर्शित करना चाहिए-इस प्रकार सोचते हुए अधिकारी को आदेश दिया - "यह वृद्ध जरा से जर्जरित है, अतः इसके लिए तेल गुणकारी नहीं होगा, अतः इसे घी देना चाहिए ।' तब धनसार ने भी "महान कृपा' इस प्रकार कहकर प्रणाम किया ।
तब सभी मजदूर इस प्रकार कहने लगे - "हे वृद्ध ! तुम्हारे ऊपर मालिक की महती कृपा है, जिससे कि तुम्हें घी दिया गया है । पर क्या तुम अकेले घृत-युक्त भोजन करोगे? यह तो अच्छा नहीं है, क्योंकि उत्तम व्यक्तियों द्वारा भेदयुक्त भोजन करना कुनीति है । अतः तुम मालिक को ऐसा कुछ कहो, जिससे हमको भी घृतयुक्त भोजन मिल जाये ।'