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धन्य-चरित्र/135 जैसे-चन्द्र के उदय के बिना रात्रि शोभा को प्राप्त नहीं होती है।"
तभी किसी पुरुष ने कहा-"स्वामी! नगर में पटह-उद्घोषणा करवायी जाये, तब इस महानगर में कोई भी बुद्धि सम्पन्न व्यक्ति प्रकट होकर इसके सत्य-असत्य का विभाग करके सब कुछ सरल कर देगा।
तब राजाज्ञा से और गोभद्र श्रेष्ठी के अभिप्राय से समस्त राजगृह नगर के त्रिपथ-चतुष्पथ- राजमार्ग आदि में इस प्रकार पटह बजा-'जो बुद्धिमान इस कपटी को निरुत्तर करके श्रेष्ठी की चिंता का निवारण करेगा, विवाद को खत्म करनेवाले उस पुरुष को गोभद्र श्रेष्ठी बहुत सारी ऋद्धि से युक्त अपनी पुत्री देंगे तथा राजा भी बहुत सम्मान करेंगे। इस प्रकार बजता हुआ पटह, जहाँ सज्जनों का मान्य धन्य रहता था, वहाँ आया।
तब धन्य ने कौतुक से व्याप्त चित्त के द्वारा कपट-अन्धकार का नाश करने में सूर्य के समान पटह का स्पर्श किया और स्वयं अश्व पर आरूढ़ होकर राजसभा में जाकर राजा को नमस्कार करके बैठ गया। राजा ने उसका सम्मान करते हुए उस धूर्त की सम्पूर्ण घटना बतायी। धन्य ने हँसकर कहा-'महाराज! आपके पुण्य-प्रभाव से लीला-मात्र में ही उसे निरुत्तर कर दूंगा। आप चिन्ता न करें।"
फिर गोभद्र सेठ को एकान्त में बैठकार 'इस प्रकार कहना” ऐसी शिक्षा दी-'हे श्रेष्ठी! अगले दिन राजसभा में वह धर्त कपट करने के लिए आये, तो मेरी कही हुई उक्तियों से उत्तर देना।" इस प्रकार सिखाकर उसे भेज दिया।
पुनः दूसरे दिन राजसभा में राजा की आज्ञा से सभी राज्य-जन आये। धन्य भी यथावसर आ गया। अब धूर्त अवसर पाकर बहुत सी दम्भ-युक्तियों द्वारा जब नेत्र माँगने लगा, तब गोभद्र सेठ ने समस्त इभ्यों तथा राजा के समक्ष वाद को शान्त करने के लिए धूर्त को कहा-'हे भद्र! तुम्हारी आँख मेरे घर में गिरवी रखी हुई है-यह बात सत्य है। तुम्हारा कथन असत्य नहीं है। पर मेरे घर में मंजूषा में पहले से ही हजारों लोगों द्वारा इस प्रकार के नेत्र गिरवी रखे हुए हैं। अतः ज्ञात ही नहीं होता कि तुम्हारी आँख कौनसी है? उसके बदले दूसरी देना तो शास्त्र में महा–प्रायश्चित्त का कारण कहा है। सभी जनों को अपना-अपना ही प्रिय होता है। जो कहा है
पृथिव्याँ मण्डनं नगरम्, नगरस्य मण्डनं धवलगृहं, धवलगृहस्य मण्डनं धनम्, धनस्य मण्डनं कायः, कायमण्डनं वक्त्रं, वक्त्रस्य च मण्डनं चक्षुषी।
अर्थात् पृथ्वी की शोभा नगर है, नगर की शोभा धवल घर है, धवल घर की शोभा धन है, धन की शोभा शरीर है, शरीर की शोभा मुख है और मुख की शोभा नेत्र है। अतः मनुष्यों को सम्पूर्ण सार रूप से दोनों ही होते हैं। अति आवश्यक कार्य आ पड़ने पर अति प्रिय वस्तु भी गिरवी रखकर धन को ग्रहण करते हैं। धन देनेवाले व्यापारी भी प्रायः गिरवी लेकर ही ब्याज में धन देते हैं। यही अच्छे वणिकों की पद्धति है। अतः आप अपना दूसरा नेत्र भी प्रदान करें, जिससे उसका मिलान करके मैं