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धन्य-चरित्र/130 अर्थात् एक के बिना जगत शून्य के समान प्रतीत होता है।"
इस प्रकार जब राजा आदि मूढ़ होकर बैठे थे, तभी किसी ने कहा-“महाराज बहुरत्ना वसुन्धरा के अनुसार इस पृथ्वी पर रत्नों की कमी नहीं है। अतः पटह-उद्घोषणा करवायी जाये, जिससे कोई भी गुणियों में अग्रणी इस कार्य को करेगा।"
राजा ने पटह की अनुमति प्रदान कर दी। पटह इस प्रकार बजाया गया-“हे लोगों! सुनो-सुनो। राजा का आदेश सुनो। जो कोई भी रंक भी इस प्रकोपी श्रेष्ठ हाथी को अध्यात्म के द्वारा मन को वश में किये हुए की तरह आलान-स्तम्भ तक लायेगा, उसे मुख की शोभा से चन्द्रमा की श्री को जीतनेवाली सोमश्री नामक राजकुमारी दी जायेगी। साथ ही बहुत सारी सम्पत्ति, उद्यान आदि और सहस्रों की संख्या में ग्रामादि दिये जायेंगे । अतः जो कोई भी कलावान पुरुष हो, वह प्रकट होकर इस हाथी को आलान-स्तम्भ तक लेकर जाये।
___ क्रम से यह पटह धन्य के घर के समीप पहुँचा। धन्य ने हाथी को वश में करने की स्वीकृति द्वारा वह पटह-उद्घोषणा रोक दी। तब सेवकों ने पटह-वादन छोड़कर राजा के पास जाकर निवेदन किया-"स्वामी! एक विदेशी पुरुष ने पटह का स्पर्श किया है।" राजा भी यह सुनकर आश्चर्यपूर्ण हृदयवाला होकर वहाँ आया।
हाथी जहाँ उच्छृखलता कर रहा था, धन्य ने भी वहाँ आकर अपने अधिकतर वस्त्रों का त्याग किया। वज-कच्छे की लंगोटी बाँधकर उसके पास आकर क्षणभर उसके सिर पर, क्षण भर सामने, क्षण भर बगल में, क्षण भर पीछे, तो कभी वस्त्र को गोल-गोल घुमाकर उस पर घात करने लगा। हाथी भी उसको मारने के लिए दौड़ने लगा। तब धन्य भी छोटी सी लाघवता के द्वारा पीठ पर जाकर उसे ताड़न करने लगा। गज को चक्र की तरह घुमाने लगा। इस प्रकार गज-दमन शिक्षा में कुशल धन्य के द्वारा गज अति खेदित हुआ। वह इधर-उधर दौड़ने-भागने के श्रम से खेदित होता हुआ निर्मद हो गया।
तब गज को ग्लान अंगवाला जानकर बन्दर की तरह उछलकर धन्य उसकी पीठ पर जा पहुँचा। पाँव से उसके मर्म को आहत करके तथा अंकुश से सीधा करके अनाकुल होते हुए उसे आलान-स्तम्भ तक ले जाकर बाँध दिया। मगधाधिपति भी उसकी इस कला को देखकर अति रंजित हुआ। धन्य की बहुत स्तुति करके बहुमान-पूर्वक मनोरम महोत्सव करके उसे अपनी पुत्री सोमश्री तथा सहस्रों गाँव दिये। अन्य भी सुवर्ण-मणि-मुक्ता आदि हथलेवे की छुड़ाई में देकर अपने वचन का निर्वाह किया।
इस प्रकार सूखे हुए वन के पल्लवित होने से बढ़ती हुई धन्य की कीर्तिलता हाथी-भय के निवारण से समस्त नगर के एक-एक गृह-मण्डप में इस प्रकार विस्तार को प्राप्त हुई, जैसे कि पर्वत से निकलती हुई नदी नव मेघों के बरसने से बढ़ती है।