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धन्य-चरित्र/129 राजा का इस प्रकार का कहा हुआ सुनकर अभय ने मन में निर्णय किया कि “निश्चय ही इसी ने ही धर्म-छल से पण्याँगना द्वारा मुझे यहाँ बुला लिया है। इस प्रकार विचारकर अभय बोला-“राजन! धर्मछल के द्वारा किया हुआ यह बन्ध मेरी महिमा की हानि नहीं करता, बल्कि उसे उद्दीप्त करता है और भी, हमारे देश
और कुल में कोई भी धर्म के छल से इस प्रकार का कार्य नहीं करता, क्योंकि यह क्षत्रिय-कुल की मर्यादा नहीं है और भी, अच्छा ही हुआ कि इससे मासी के पति के दर्शनों का सौभाग्य तो प्राप्त हुआ। आज तो श्रेष्ठ दिवस है।"
उसके इस प्रकार के वचन-चातुर्य से प्रद्योत भी प्रसन्नता को प्राप्त हुआ। जैसे कलावान चन्द्र शुक्र के घर में भी स्थित रहते हुए उच्चता को ही प्राप्त होता है, वैसे ही शत्रु के घर में स्थित भी अभय अपने कला और गुणों से सभी को प्रिय हो गया। सभा में स्थित अभय विविध शास्त्र-देश-विज्ञान आदि अद्भुत रस से गर्भित अवसरोचित वार्ता द्वारा राजा को प्रसन्न करता था। इससे अभय राजा का प्रीति–पात्र बन गया। राजा उसे क्षण भर के लिए भी नहीं छोड़ता था। हमेशा अभय की उक्तियाँ सुनने के लिए कान ऊपर करके ही रखता था।
इधर एक दिन राजगृह नगर में अत्यन्त उठी हुई मेघ-घटाओं के सदृश मदान्ध अन्तःकरणवाला सेचनक नामक श्रेष्ठ हाथी श्रेणिक राजा की गजशाला से आलान स्तम्भ को उखाड़कर नगर की श्री को उजाड़ता हुआ, नगर-द्वारों को पैरों से नष्ट करता हुआ, सुखश्री रूपी मानवों तथा घरों को अपने पाँवों के आघात से पुराने भाण्डों की तरह चूर्ण बनाता हुआ, घर रूपी शरीर के आँखों रूपी गवाक्षों को लँड रूपी दण्ड के आघात से गिराता हुआ, सैन्य-सम्पदा को श्मशान की तरह चरणों से घट्टन करते हुए, सहस्रों भारवाली लौह-शृंखला को कमलों की तरह तोड़ता हुआ, मनोरम क्रीड़ा-उद्यानों को मसलता हुआ, जिस प्रकार बालक अपनी लीला से कन्दुक को इधर-उधर आकाश में उछालता है, उसी प्रकार सुभिक्ष पर्वत के कूट के समान धान्य-मूठों को आकाश में उछालता हुआ, रोष से आबाल-गोपाल सभी को यम की मूर्ति की तरह प्राप्त होता हुआ, भीषण क्रूर आकारवाला समस्त पुर के लिए प्रलय काल के समान वह नगर में परिभ्रमण करने लगा।
तब राजाज्ञा से कुशल मन्त्रियों तथा सुभटों आदि के द्वारा उसके निग्रह के लिए किये गये सभी उपाय क्षय-रोग में किये जानेवाले वैद्य कृत समस्त उपायों की तरह विफलता को प्राप्त हुए।
तब बुद्धि का धनी भी श्रेणिक राजा अवन्ती में स्थित बुद्धि-सम्पदा के निधान अपने प्रधान अभय को याद करके दुःखित होता हुआ विचार करने लगा-“निश्चय ही अभी यदि अभय होता, तो इस हाथी को क्षण भर में ही वश में कर लेता। अतः यह लोकोक्ति सफल ही देखी जाती है
एकेन बिना जगत शून्यमिवाभाति।