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धन्य-चरित्र/79 चक्षु-इन्द्रिय में आसक्त जीव अनुकूल-प्रतिकूल वर्णादि की प्राप्ति और अप्राप्ति में राग-द्वेष की प्रबल परिणति द्वारा पाप-कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति व रस बंध को रचता हुआ अनन्त भवों में परिभ्रमण करता हैं।
इसी प्रकार शब्द के विषय में आसक्त जीव श्रवण के सुख या दुःख–मात्र से दुर्गति के कुएँ में गिरता हुआ क्लेश का अनुभव करता है। जैसे-संग्राम में बंदी-जन द्वारा गाये जाते हुए कुल-जाति आदि की प्रशंसा के श्रवण से शूर सैनिक की तरह या फिर सनत् कुमार की तरह।
इसी प्रकार गंध के विषय में अनुकूलता की प्राप्ति से जीव दुष्कर्म का पोषण करता है। मल से मलिन मुनियों के शरीर की दुगूछा-मात्र से दुर्गति में परिभ्रमण करता है। जैसे-राजपत्नी दुर्गन्धा की तरह या फिर सुगन्ध में आसक्त भ्रमर की तरह।
__स्पर्शनेन्द्रिय में आसक्त का तो कहना ही क्या? क्योंकि परदारा में आसक्त जीव अठारह ही पापों का अति तीव्र संक्लेश से आचरण करता है। उससे इसलोक में राज्य-धन-यश –भोग-आयु आदि को हारता है और परलोक में अनन्त काल तक यावद् नरक-निगोद में परिभ्रमण करता है। जैसे ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती।
एक महान आश्चर्य यह है कि जो जीव जिन विषयों को अति आदर से सेवन करते हैं, वे ही अन्य जन्म में अन्य-अन्य शरीर-इन्द्रियों के जघन्य से दस गुणा, सौ गुणा अथवा हजार गुणा, लाख गुणा अथवा करोड़ गुणा अथवा उससे भी अधिकतर अथवा उत्कृष्ट आकुट्ठी आसेवन में बीज-परम्परा से अनन्तगुणा यावत् प्रतिकूल, असहनीय, अकथनीय, केवलीगम्य-इस प्रकार दुःख को प्राप्त होते हैं। जो केवली द्वारा भी जानने में तो समर्थ है, पर बोलने में तो वे भी समर्थ नहीं है।
इस प्रकार के कितने ही खल विषयों को जानते हुए भी पुनः पुनः उसके लिए दौड़ते हैं और क्लेश को प्राप्त होते हैं। उनकी प्राप्ति में महान हर्ष तथ अप्राप्ति में चिन्तामणि से भी मूल्यवान नर-भव को व्यर्थ ही गिनते हैं। ऐसे विषय उन मनुष्यों को दुःख ही देते हैं, क्योंकि
निर्दयः कामचाण्डालः पण्डितानपि पीडयेत्। ___ अज्ञपीडने किं चिंत्रं विषयान् सेवते स तु।।
अर्थात् यह निर्दय काम रूपी चाण्डाल पण्डितों को भी पीड़ित करता है, तो अज्ञानियों को पीड़ा दे, तो इसमें क्या विचित्रता है? वह तो विषयों की सेवा करता है। विषय-सेवक भव संकट में गिरता है, वह तो घटित होता ही है, कि