________________
धन्य-चरित्र/109 ग्रथिल है? क्या यह भूत से आविष्ट चित्तवाली है? जो कि मना करने पर भी वापस नहीं लौटती है। इसके हृदय की कठोरता तो देखो।"
तभी किसी ने कहा-"यह आर्या तो सभी आर्याओं में बड़ी है। कठोर हृदया भी नहीं है, न ही कानों से बहरी है। यह ग्रथिल भी नहीं है, बल्कि यह तो गुणवती है। बहुश्रुतधारिणी है। देशना रूपी अमृत के दान से इसने बहुत से लोगों के विषय-कषाय की अग्नि को बुझाया है। इसके दर्शन-मात्र से ही अतुल पुण्य होता है। इतना तो जानता हूँ, कि यह जो करेगी, अच्छा ही करेगी।"
पुनः एक ने कहा-"जो तुमने कहा, वह तो सत्य है। पर क्या जानते हो कि साध्वी मरण-भय से मुक्त होती है? हस्ति-उपसर्ग को सहन करने के लिए निस्पृह होकर तो नहीं जा रही है? पूर्व में भी सुना है कि अनेक मुनियों द्वारा सम्मुख जाकर उपसर्ग सहन किया गया। मुनि तो उपसर्ग-सहन के द्वारा कार्य-सिद्धि करते ही हैं, पर जब गाँव की सीमा में मुनि का उपसर्ग होता है, तो वह उस गाँव के लिए अशुभ होता है। अतः चित्त में विषाद पैदा होता है।"
इस प्रकार बोलते हुए लोगों को उसी समय हाथी दिखायी दिया। हाथी ने भी आर्या को देखा। सामान्य मनुष्य की भ्रांति से हाथी उस आर्या की ओर दौड़ा। जब निकट आया। दोनों का दृष्टि-मिलन हुआ, तो पुनः मोह का उदय हुआ। क्रोध शांति में बदल गया। वहीं स्थित होकर मस्तक को हिलाने लगा और मन में आह्लाद को प्राप्त होने लगा।
तब साध्वी ने कहा- "हे रूपसेन! जागो! जागो! क्यों मोह में अंधे होकर दुःख को प्राप्त करते हुए भी मेरे ऊपर स्नेह का त्याग नहीं करते? मेरे लिए क्लेश सहन करते हुए तुम्हारा यह सातवाँ भव है। मेरे निमित्त से छह भवों में निरर्थक ही छह बार मारे गये।
यह सातवाँ भव प्राप्त हुआ है। अब भी समस्त दुःखों के एकमात्र कारण रूप प्रेम-बंधन को क्यों नहीं छोड़ते हो? प्रत्येक भव में अनर्थदण्ड के द्वारा दण्डित किये जाते हो। क्योंकि :
_ 'रूपसेनो गर्भगतः सर्पो 'ध्वाङ्क्षोऽथ हंसकः ।
"मृगोऽपि मारितो जातो 'हस्तित्वं सप्तमे भवे ।।
अर्थात् रूपसेन, गर्भस्थ जीव, सर्प, कौआ, हंस और मृग के रूप में मारे जाने पर भी सातवें भव में हस्ति के रूप को प्राप्त हुए हो। अतः स्नेह बंधन का त्यागकर वैराग्य भाव को जागृत करो।"
साध्वी का कथन सुनकर हाथी ऊहा-अपोह करने लगा-“मैंने इस प्रकार की अवस्था को कहीं अनुभूत किया है, ऐसा लगता है।"