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धन्य-चरित्र/121 बहुमानपूर्वक विविध प्रकार की रसोई द्वारा भोजन करवाकर, स्वर्ण आसन पर बिठाकर, पाँच सुगन्धित ताम्बूल देकर, विविध उपचारों के द्वारा उपचर्या करे श्रेष्ठी ने अंजलि करके सविनय तथा गौरवपूर्वक धन्य को कहा-"हे सौम्य! तुम्हारे अद्भुत गुणों द्वारा मैंने तुम्हारे वंश का गौरव जान लिया है। कहा भी है
आचारः कुलमाख्याति। __ अर्थात् व्यक्ति का आचार उसके कुल दर्शाता है। इत्यादि कारणों से मेरे जीवन रूपी वन को फल व कुसुमश्री देनेवाली कुसुमश्री नामकी कन्या तुम्हे देकर कुछ उऋण होने की इच्छा करता हूँ। अतः मेरी पुत्री के साथ पाणिग्रहण करके मुझे कृतार्थ करो। जिससे मेघ धारा से कदम्ब पुष्प की तरह मेरा मन रूपी पुष्प प्रफुल्लित हो।"
तब पथ्य, सत्य व रुचि के अनुकूल श्रेष्ठी के वचन को धन्य ने मान लिया। तब श्रेष्ठी ने कुंकुम घोलकर कुसुमश्री के प्रदान रूपी करार को अखण्डित चावलों के साथ तिलक करवाया। श्वसुर-सम्बन्ध हो जाने पर श्रेष्ठी द्वारा अत्यधिक बहुमानपूर्वक अपने घर पर रखे जाने पर भी मान का धनी धन्य “एक साथ रहना मान-हानि का कारण है" ऐसा मन में जानकर भाड़े का घर लेकर उसमें रहने लगा। नीति-शास्त्रों में भी कहा है
मित्रस्याऽप्यपरस्यात्र समीपे स्थितिमावहन् ।
कलावानपि निःश्रीको जायते लघुतास्पदम् ।। अपन मित्र के समीप भी स्थिति का वहन करने पर धनहीन कलावान पुरुष भी लघुता के स्थान को प्राप्त होता है।
चिंतामणि के प्रभाव से जैसे-जैसे व्यापार, धन, कीर्ति बढ़ने लगी, वैसे फल युक्त वृक्षों पर पक्षियों की तरह लोग धन्य का आश्रय लेने लगे। फिर विवाह के लिए गृहित प्रशस्त माह, तिथि, नक्षत्र, वर्ष के दिन थोड़े ही दिनों में अत्यधिक सामग्री जोड़कर खूब महोत्सवपूर्वक विवाह कराने के लिए श्रेष्ठी प्रवृत्त हुआ। धन्य ने भी अपने घर के योग्य पूर्णता से भी अधिक उत्सव प्रवर्तित किया। पाणिग्रहण के दिन श्रेष्ठी ने यथाविधि अमूल्य मणि-मुक्ता आदि के दानपूर्वक कुसुमश्री नामक कन्या धन्य को दी। धन्य उसे ग्रहण करके शिव-पार्वती, केशव-कमला की तरह सुभ्रूवाली कुसुमश्री के साथ पुण्य से लाये गये पंच वैषयिक सुख-भोग को भोगते हुए सुखपूर्वक काल निर्गमन करने लगा।
एक बार अवसर आने पर सोलह राजाओं को जीतनेवाला चण्ड प्रद्योत नामक मालवाधिपति मगधाधिपति को जीतने के लिए अति विकट सेना लेकर मगध की ओर चला। चरों ने उसके समीप आने पर राजा को कहा। तब चरों