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धन्य-चरित्र/125 राजा ने कहा-"अगर ऐसा है, तो अपने इच्छित अर्थ की सिद्धि करो।"
तब वेश्या ने राज-आदेश को पाकर विचार किया-"बहोत्तर कलाओं को जाननेवाले, बहुत से शास्त्रों से परिकर्मित मतिवाले, सब समय में सावधान, सब कार्यों में प्रत्युत्पन्न मतिवाले को किस उपाय से ठग सकती हूँ? एकमात्र धार्मिक बुद्धि के प्रपंच से ही ठग सकती हूँ, क्योंकि बड़े लोगों की धर्म-क्रियाओं में बुद्धि-व्यापार नहीं होगा, बल्कि सरलता ही मुख्य होती है। अतः धर्म के बल से अभय को ठगा जा सकता है। पहले भी धर्म-छल से अनेक व्यक्ति ठगे गये-ऐसा सुना जाता है। मैं भी धर्म सीखकर बाद में उसे ठगूंगी।"
इस प्रकार विचार करके साध्वी के पास जाकर वंदन करके धर्म को पढ़ने व सुनने लगी। विचक्षण होने से थोड़े ही दिनों में अर्हत् धर्म में विज्ञ बन गयी।
तब राजाज्ञा से महामाया की निधि उस वेश्या ने श्राविका वेश धारण किया तथा राजगृह नगर में गयी। नगर के बाहर उपनगर शाखापुर में उतरकर प्रभात में दीप-धूप- चावल-चंदन-केशर-घनसार आदि पूजा-द्रव्य लेकर परिकर सहित नगर के अन्दर चैत्य-परिपाटी से चैत्य-वंदन करती हुई क्रमशः राजा द्वारा कृत जिन-मंदिर में गयी।
श्री जिनमंदिर के प्रवेश द्वार के अवसर पर "निस्सीहि' प्रमुख दस त्रिकों का सत्यापन करती हुई वह वेश्या चैत्य में चैत्य-वंदन करने लगी। तभी अभय भी जिन-वंदन के लिए आया। वहाँ वैराग्य-हाव-भाव आदि से युक्त जिन-स्तुति करते हुए उसे देखकर प्रीतिपूर्वक उसकी स्तुति सुनने लगा। उसे सुनकर व देखकर अभय ने विचार किया-"यह जिनमत से भावित अन्तःकरणवाली, भक्ति-भावना से भरे हुए अंगोंवाली प्रियधर्मिणी किसी भी ग्रामान्तर से आयी हुई दिखाई देती है। इसका सुवर्ण-पात्र के समान बहुमान करने पर महान लाभ होगा। यह उत्तम साधर्मिका है।"
इस प्रकार निर्णय करके चैत्य से बाहर मण्डप में निकलते हुए उस श्राविका रूपी वेश्या से बात की-“बहन! आपका कहाँ से आगमन हुआ है?"
यह सुनकर दम्भ-रचना के द्वारा कहा-“हे धर्मबन्धु! लोक के उदर नामक नगर में, भव-भ्रमण रूपी चतुष्पथ में, मनुष्य गति रूपी फाटक में, संसारी जीव रूपी जातिवाली मैं यहाँ क्षेत्र-स्पर्शना से आयी हूँ।"
अभय ने कहा-“हे बहन! श्री जिनमत से वासित अंतःकरणवालों की इसी वस्तु स्थिति की परिभाषा होती है। मैंने तो आपकी जिनस्तुति के श्रवण-मात्र से परीक्षा कर ली कि आप तीव्र श्रद्धा युक्त हैं। पर मैं तो व्यवहार-नय की रीति