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धन्य-चरित्र/115 कामबाण रूपी वचन मेरे मन की भित्ति को भेदने में समर्थ नहीं है, क्योंकि शिरीष - पुष्पों के पुंज क्या पत्थर की दीवार को भेद सकते हैं?
हे मनोहर भौंहोंवाली! सरस होने पर भी तुम्हारे मेघधारा के सदृश शब्द ऊसर क्षेत्र के समान मेरे चित्त में राग के अंकुर उगाने में हेतु भूत नहीं हो सकते ।
हे सुरम्य लोचना! दावानल के समान दुस्सह कामयुक्त विकारजनक तुम्हारे हाव-भाव भी श्रीमद् आगम - सागर में निमग्न मुझे तपित करने में समर्थ नहीं है। हे मुग्धे ! नरक को प्राप्त करानेवाली दुःखदायी परस्त्री से पराङ्मुख मुझमें सौधर्म कल्प आदि में वास करनेवाली रम्भा, तिलोत्तमा आदि के प्रयत्न भी निष्फल है, तो तुम्हारे सदृश का तो क्या कहना ?
हे देवी! नरक-ज्वाला की परम्परा के संग से जनित दुःख से त्रस्त कौन सचेतन पुरुष काम संज्ञा के उदय - मात्र से भी पर - स्त्री - संग से उत्पन्न गटर के कुएँ में रहने जैसे ऐहिक दुःख - मात्र को जाननेवाले ललितांग कुमार की तरह पर- स्त्री को भोगने की वांछा करेगा? अर्थात् कोई भी वांछा न हीं करेगा। हे भद्रे ! जो नर इस भव में विषय - सेवन - काल में पर- स्त्री संयोग- -जन्य क्षणमात्र के सुख को अनुभव करके प्रसन्न होते हैं, वे नर पर-भव में पर- स्त्री के संग से जनित कर्म - विपाक के उदय में नरक- क्षेत्र में नारकी रूप से उत्पन्न होकर संख्यातीत काल तक परमाधामी देवों द्वारा दिये गये क्षुधा आदि दस प्रकार के गाढ़ दुःखों का अनुभव करते । कहा है
नरयादसविहावेयणा सि-उसिण - खु - पिवास - कंडूहिं । परवसं च जर दाह भय सोगं च वेयन्ति । ।
अर्थात् नारकी जीव शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा, खाज, परवशता, जरा, दाह, भय और शोक - इन दस प्रकार की वेदना को वेदते हैं। पुनःखिणमित्त सुक्खा बहुकाल दुक्खा, पगामदुक्खा अणिकाम सुक्खा । संसारमुक्खस्स विपक्खभूया,
खाणी अणत्थाण य कामभोगा ।।
अर्थात् क्षणमात्र का सुख बहुत काल के दुःख का जनक है। कांक्षित सुख प्रकाम दुःख का कारण है। इस तरह काम - भोग मोक्ष के विपक्षभूत संसार को बढ़ानेवाला एवं अनर्थों की खान है ।
इत्यादि श्री जिन - आगमोक्त तत्त्वज्ञ, पुरुष काम-वल्ली के परवश कैसे हो सकते हैं? जलती हुई ज्वालाओं से युक्त अग्नि में प्रवेश करके मरना श्रेष्ठ