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धन्य-चरित्र/113 काम-भोग का तो कहना ही क्या? उसकी क्या गति होगी? संसार चक्र में विषयों की अपूर्णता में भवाभिनन्दी जीव दुःख मानते हैं और उसकी पूर्णता में सुख मानते हैं। पर नहीं जानते कि जैसे धीवर मांस के टुकड़ों को देकर मत्स्यों को मरण संकट में गिराते हैं, वैसे ही विषय भी वैषयिक सुख के छोटे से टुकड़े को देकर अनन्त बार मरण के संकट में गिराते हैं। यह तो महान आश्चर्य ही है कि अनन्त बार भोगे हुए विषयों को अज्ञान के वश में रहा हुआ जीव कभी नहीं आस्वाद लिए हुए की तरह भोगते हुए आनन्द मानते हैं। जैसे-जैसे आनन्दित होते हैं, वैसे-वैसे दुष्ट कर्मों की स्थिति को बढ़ाकर नरक-निगोद रूपी कुएँ में गिरते हैं। इसलिए श्री जिनवाणी को सुनकर विषय-कषायों को दूर से ही त्यागकर श्री जिन-चरणों की सेवा और ब्रह्मचर्य का पालन करो।
इस महान मुनि की देशना को सुनकर विषयों को हेय दृष्टि से देखते हुए धन्य ने महान अनर्थ के मूल स्वरूप पर-नारी सेवन के निषेध रूप स्वपत्नी-संतोष व्रत मुनि के पास ग्रहण किया। तब धन्य अपने आपको धन्य मानता हुआ हर्षपूर्वक पुनः-पुनः मुनि-युगल को प्रणाम करके ब्रह्मचर्य भावना को भाते हुए आगे मार्ग तय करने लगा।
फिर श्रम-रहित होकर जो कुछ भी आहार आदि प्राप्त हुआ, उसे करके गंगा तट पर रही हुई मक्खन से भी कोमल बालुका का बिस्तर बनाकर संध्या के समय में श्रीमद् अमाप महिमावन्त परमेष्ठि नमस्कार को गिनता हुआ बैठ गया।
उसी समय क्रीड़ा के लिए निकली हुई गंगा नदी की अधिष्ठायिनी गंगा नाम की देवी वहाँ आयी। चंद्रमा की चाँदनी से धवल की हुई पृथ्वी की उस रात्रि में सकल गुणों की एक निधि रूप धन्य के अनुपम रूप, सौभाग्य और निर्माण को अत्यधिक अद्भुत देखकर वह देवी तीव्र वेद के उदय से तीव्र काम-राग से आतुर हो गयी। राग के अतिरेक से गंगा के चित्त में प्रबल आकुलता पैदा हो गयी। क्योंकि
पुरुषवेदोदयात् स्त्रीवेदोदयोऽत्याधिकतरो भवति। अर्थात् पुरुष वेद के उदय से स्त्री वेद का उदय अधिकतर होता है।
कामशास्त्र में भी पुरुष से स्त्री का काम अष्टगुणा निश्चित किया गया है। इस प्रकार के दुर्निवारणीय काम-बाण के आ पड़ने पर कौन स्थिर रह सकता है? जिसके कानों में जिनागम रूपी वाणी न पड़ी हो, वह तो कदापि स्थिर नहीं रह सकता।
वह देवी काम के वश में होकर लज्जा आदि का त्याग करके दिव्य रूप