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धन्य-चरित्र/112 राजा भी उस आश्चर्य को सुनकर बहुत से सैन्य से युक्त होकर वहाँ आ गया। आर्या को नमन करके पूछा-“यह आश्चर्यकारी घटना क्या है? कृपा करके अनुग्रह कीजिए।" ।
तब साध्वी ने समस्त विषयासक्त-विपाक बताया। हाथी के द्वारा की गयी विज्ञप्ति तथा अपने द्वारा बताये गये उपाय तक की सम्पूर्ण घटना कह सुनायी। वह सब सुनकर सभी चमत्कार और वैराग्य-धर्म को प्राप्त हुए।
पुनः साध्वी ने कहा-"राजन! यह सर्व गुणों से युक्त भद्र जातिवाला हाथी है, जिसके घर में रहता है, उसके घर में ऋद्धि और प्रताप बढ़ जाता है। इस प्रकार का सुलक्षणी, धर्मवान तथा धर्मरुचिवाला हाथी कहाँ मिलता है? अतः आप इसकी पालना करें। आपको जीवदया, गुणी की संगति, साधर्मिक वात्सल्य और तपस्वी की सेवा-इस प्रकार से चारों लाभ प्राप्त होंगे।"
इस प्रकार आर्या के कहे जाने पर राजा ने हर्षित होकर कहा-"अगर यह मेरे आलान में स्वयं आता है, सुख से रहता है, तो मैं आयु पर्यन्त जैसा साध्वीजी ने उपदेश दिया है, उस प्रकार से प्रतिदिन इसकी सेवा-शुश्रूषा करूँगा। यह धन्य है कि इसने तिर्यंच के भव में भी धर्म को अंगीकार किया है। अतः हे हस्तिराज! सुखूपर्वक मेरी हस्तिशाला में आओ।"
यह सुनकर हाथी स्वयमेव ही ग्राम के सम्मुख चला। हस्ति-निवास शाला में जाकर स्वयं ही अवस्थित हो गया। राजा भी साध्वी द्वारा दिखाये गये मार्ग से हाथी को पालने लगा। जैसे-हाथी दो दिन तक बेले का तप करता था। तीसरे दिन राजा दोष रहित आहार से पारणा करवाता था। पुनः वह छ? तप करता था। इस प्रकार यावज्जीवन तप-धर्म और ब्रह्मचर्य तप की आराधना करते हुए, सकल श्रुत के सार रूप नमस्कार महामंत्र का स्मरण करते हुए, निर्विघ्न रूप से आयु को समाप्त करके, समाधि करके, सहस्रार देवलोक में अठारह सागरोपम की आयुवाले देव के रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ से च्यवकर महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध होगा।
सुनन्दा आर्या भी राजा आदि बहुत से भव्य-जीवों को प्रबोधित करके और जिनशासन की उन्नति करके पुनः प्रवर्तिनी के समीप गयी। प्रवर्तिनी ने भी उसकी प्रशंसा की। उस आर्या ने संयम की आराधना करके, अति तीव्र कर्मों का क्षय करके, केवलज्ञान को प्राप्त कर अक्षय पद को प्राप्त किया।
|| इति सुनन्दा-रूपसेन-कथा।। __ इस प्रकार बिना सेवन किये हुए भी विषय अगर मन को इष्ट हो, तो संसार चक्र रूपी गहन दुर्गति में भ्रमण कराते हैं। तो फिर इष्ट और सेवित