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धन्य-चरित्र/118 माननीय यशवाला धन्य देशान्तर में घूमते हुए योग्यता के साथ चिंतारत्न से पूरित तथा पूर्वदत्त दान के अनुभाव से सकल भोग-सामग्री सुख का अनुभव करते हुए सुखपूर्व मगध देश को प्राप्त हुआ।
अतः हे भव्यजनों! अगर आप लोगों को भी प्रकर्ष सुखों को भोगने की इच्छा है, तो हमारे शासन में भी जिनेश्वर प्रभु द्वारा कीर्तित दान-धर्म में रति करो, जिससे मनोरथों की सिद्धि होवे।
।। इस प्रकार श्री तपागच्छीय अधिराज श्री सोमसुन्दर सूरि जी के पट्ट प्रभाकर शिष्य श्री जिनकीर्ति सूरि द्वारा विरचित पद्य-बंध धन्य-चरित्रवाले श्री दानकल्पद्रुम का महोपाध्याय श्री धर्मसागर गणि के अन्वय में महोपाध्याय श्री हर्षसागर गणि के प्रपौत्र महोपाध्याय श्री ज्ञानसागर गणि शिष्य द्वारा अल्प मति से गूंथा हुआ गद्य रचना प्रबंध में सुवर्ण-सिद्धि तथा विदेश–प्रस्थान वर्णन नामक चतुर्थ पल्लव पूर्ण हुआ।।
पाँचवाँ पल्लव
उदारों में प्रमुख उस धन्य को राजा, धान्य तथा धनादि शुभ वस्तुओं से समृद्ध मागधों की तरह स्तुति-पाठको को प्रसन्न दृष्टि से कृतार्थ किया गया। तब बृहस्पति के समान अहार्य चातुर्यवाला यह धन्य उच्च पद की अभीप्सा से घूमता हुआ क्रमशः राजगृह नगर को प्राप्त हुआ।
राजगृह नगर का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जिस नगर में रूप से मनोहर घर अपनी दीवारों पर रही हुई मणियों की चमक से सदा देवयुक्त विमान को हँसते हुए प्रतीत होते थे। सूर्यकांत रत्न तथा चन्द्रकांत मणि से युक्त वानरों के शीष की आकृति से युक्त शिखर कोट पर रहे हुए थे। मानों रवि तथा चन्द्र के उदय में खायी में रहे हुए जल का शोषण और पोषण करते थे। जिसकी समग्र अभिराम लक्ष्मी सुषमावाले मणिमय ऊँचे-ऊँचे घरों द्वारा देवों के विमान से सार-सार को ग्रहण कर लेने के कारण मानो देव विमान हल्के होकर वायु के द्वारा ऊपर ले जाये गये हों-इस प्रकार आभास होता था। जिन घरों के रत्नमय आँगन में चमकते रत्नों के तोरण पर प्रतिबिम्बित मयूर के सजीव रूप को देखकर क्रीड़ा मयूर को ग्रहण करने की इच्छा से फैलाये हुए हाथवाले मुग्धजन अपने हाथों की उस स्थिति पर लक्ष्यमूढ़ हो जाते थे अर्थात् अपने मुग्धत्व पर विचार करने लगते थे। राजगृह की सम्पूर्ण गरिमा को विद्वान लोग भी कहने में कैसे शक्य हो सकते थे। जिस पुण्यभूमि को तीन जगत के स्वामी श्री वर्धमान