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धन्य-चरित्र/111
खान है ।"
इस प्रकार विचार करके जितने बड़े-बड़े अपने अज्ञान रूपी अश्रुकणों को बरसाते हुए साध्वी के निकट आकर सूंड से पुनः - पुनः नमस्कार करके कातर स्वर में विज्ञप्ति करने लगा - "हे भगवती ! तुम तो भव समुद्र से तारनेवाले अमोघ प्रवहण तुल्य चारित्र रूपी यानपात्र में चढ़कर थोड़े ही काल में पार को प्राप्त कर लोगी, पर मेरी क्या गति होगी? सबसे पहली बात यह है कि आपने अन्धे को नयन - दान की तरह मुझ पर महान उपकार किया है, जिससे आपकी कृपा शक्ति से मुझे जाति स्मृति ज्ञान उत्पन्न हुआ और मैंने भव का विपाक देख लिया है। वह सब देखकर साधनों से विकल तिर्यंच भव की वेदना के भव से व्याकुल होता हुआ आपकी शरण में आया हूँ। जो मेरे लिए शुभ हो, वही कृपा करके बतायें।" साध्वी ने अपने ज्ञान के बल से उसके आशय को समझकर कहा - "हे रूपसेन! कुछ भी चिंता मत करो। क्योंकि तुम पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय हो, कुछ क्षयोपशमशाली हो। पंचम गुणस्थान को प्राप्त करने के योग्य हो । जिनमार्गानुसारी जैसा जीव भी दुर्गति में जाने से रुक जाता है, तो शुद्ध श्रद्धावान का तो कहना ही क्या? अतः श्री जिन - आज्ञा में दृढ़ीभूत बनकर यथाशक्ति तप करो । तप-बल के प्रभाव से अनेक तिर्यच योनि के जीव तिरे हैं। अतः विषय - कषाय का त्याग करके तपस्या में लीन बनो। उसी से तुम दुर्गति- पतन से बच पाओगे ।" इस प्रकार हाथी और आर्यिका के
उत्तर- प्रत्युत्तर को सुनकर वृक्षों के
हुए लोग चमत्कृत होते हुए कहने लगे-"अहो ! यह आर्या तो ज्ञान-गुण
ऊपर बैठे की भण्डार है। देखो! इसके दर्शन - मात्र से हाथी बोधित हुआ सेवक की तरह विनयपूर्वक मुख के आगे खड़ा होकर उत्तर - प्रत्युत्तर करता है । अत्यधिक क्रोधी होने पर भी समभावी होकर साध्वी के आगे खड़ा है। यह साध्वी तो तीर्थरूप है, परमोपकारिणी है। अतः हम लोग भी चलें । इसका अभिनंदन करें। अब कोई भय नहीं है। हमें सुखपूर्वक निर्भय होकर चलना चाहिए ।
इस प्रकार परस्पर कहते हुए लोग वृक्षों से उतरकर आर्यिका को नमन कर उसकी स्तुति करने लगे। चारों ओर देखकर किले की दीवारों पर चढ़े हुए हजारों लोग भी उतरकर वहाँ आकर इकट्ठे हो गये। इस प्रकार यह बात फैलती हुई राजा के कानों तक पहुँची कि - " आज अपने गाँव की सीमा में महान आश्चर्यकारी घटना हुई है।"
राजा ने पूछा - "क्या आश्चर्य हुआ?"
तब किसी ने सम्पूर्ण घटना कही - "स्वामिन! आज से गाँव में हाथी का भय समाप्त हो गया ।