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धन्य-चरित्र/100 से युक्त निरर्थक विकल्प करके परम्परा से अनन्त काल तक यावत् वधबंधन-ताडना-ताप-छेदन-भेदन आदि बहुत से दुःख को प्राप्त करते हैं। जिसे कहने के लिए ज्ञानी भी समर्थ नहीं है।"
राजा ने कहा-"स्वामी! जो आपने कहा कि नरक-निगोद रूपी महादुःख के समुद्र हैं। तो कृपा करके आसन पर स्थित होकर हमें उसके स्वरूप का उपदेश दीजिए। स्वामी के मार्ग में स्खलना करना युक्त नहीं हैं, पर सज्जनों के मार्ग में की गयी स्खलना से गुण ही होता है। अतः मेरा उपकार करने में आप समर्थ है, इसी से प्रार्थना करता हूँ।"
तब मुनि ने भी लाभ जानकर वहाँ बैठकर आगम शैली में नरक-निगोद के विपाकों का कारणों सहित उपदेश द्वार से वर्णन किया। राजा यह सब सुनकर चमत्कृत हुआ। भयभीत होते हुए मुनि को नमन करके कहा-"यदि अनर्थ की बहुलतावाला यह संसार है, तो मेरे जैसे प्रतिक्षण कुकर्म करनेवाले की क्या गति होगी?"
साधु ने कहा-“राजन! अभी भी कुछ गया नहीं है। अगर जागृत होकर आप मन-वचन-काया की शुद्धि से धर्म की आराधना करेंगे, तो थोड़े ही समय में दृढ़ प्रहारी-कालकुमार- चिलातीपुत्र –चुलिनी आदि अत्यधिक कुकर्मियों की तरह सकल कर्म क्षय करके मुक्ति-सुख को प्राप्त करेंगे। जिसकी तुलना में तीन जगत में कोई नहीं आता है। अतः सावधान होकर यथाशक्ति धर्म का आचरण करो।"
राजा ने कहा-"स्वामी! जिस निमित्त से वार्ता में अश्रुतपूर्व सुखासिका प्राप्त हुई, वह आप नहीं कहेंगे? अब तो दया करके वह बताइए।"
साधु ने कहा-“राजन! कर्मों की गति विचित्र होती है। कर्मों का उदय महा-बलवान होता है। उसके ऊपर किसी का भी बल समर्थ नहीं है। जिससे जो भव्य कुल में जन्म लेते हैं, वे कुकर्म-प्रवृत्ति की मन से भी इच्छा नहीं करते। करना तो दूर रहा, कुकर्म की वार्ता को भी बुरा मानते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति की मति भी प्रबल विषय-कषाय के उदय के बल से पूर्व-निबद्ध कर्मों के उदय से विपर्यास को प्राप्त हो जाती है। उसे सुनकर अन्य जीव सत्य नहीं मानते, प्रत्युत, बोलनेवाले को ही उपालम्भ देते हैं। लेकिन उनको तो कर्मोदय ही इस प्रकार का कुकर्म करने की प्रेरणा देता है। इसीलिए किसी प्राणी द्वारा पूर्वबद्ध कर्मोदय के बल से कुकर्म की प्रवृत्ति की गयी, पर पुण्य-बल से किसी ने भी नहीं जानी, पर गुरु-चरण-प्रसाद से जान ली। पर वह जीव उस स्व-कृत कर्म-वार्ता को सुनकर मन से दुःख हो, लज्जित हो, सम्बन्धी सुनकर उस पर