________________
धन्य - चरित्र / 103 कि ताप के भय से दीपक बुझा दिया है। अभी ही सिर की पीड़ा कुछ कम हुई है। अतः आँख लग गयी है। तुम लोग घर के अन्दर जाकर कार्य करके आ जाओ ।
सखी का कहा हुआ सुनकर सखीवृन्द घर के अन्दर चली गयी । वहाँ पुनः अन्ध-तमस में रूपसेन की भ्राँति से उस जुआरी के साथ तुम्हारा संयोग हुआ। सखीवृन्द के भय से और लज्जा से कोई भी वार्त्तालाप तुमने नहीं किया । संयोग के विराम पर पुनः सखीवृन्द के आगमन को जानकर सखी ने कहा—“अभी तो आप शीघ्र ही चले जायें।" यह सुनकर सुरत क्रिया द्वारा त्रुटित हार आदि लेकर वह चला गया। बोलो, यह सत्य है या असत्य ?"
मुनि द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर चिंतित अर्थ से विपरीत जानकर दीर्घ निःश्वास लेते हुए सुनन्दा ने कहा - "स्वामी! आपके कथन में क्या संदेह ? निःसंदेह ही है । पर रूपसेन की क्या गति हुई?"
मुनि ने कहा - " अब उसकी भी घटना सुनो
रूपसेन भी यथावसर भोग सामग्री लेकर अपने घर से निकला । मिलन की उत्सुकता से हर्षपूरित हृदयवाला, अनेक बातें करने के लिए, मिलन को उत्सुक, अनेक हास्य - विलास आदि करने के लिए सूक्तियाँ कहने के लिए, समस्या आदि द्वारा अपना चातुर्य प्रकट करने के लिए, विविध आसन आदि के प्रयोग - पूर्वक सुरत क्रिया करने आदि मनोरथों को करता हुआ - अहो! यह राजपुत्री मेरे ऊपर निष्कपट किरमिची रंग के समान राग को धारण करती है। इसलिए मैं भी जो भावी है, वह हो जाये पर इसके साथ आजीवन स्नेह-सम्बन्ध बनाये रखूँगा । इत्यादि, अनेक मनोरथ रूपी आर्त्तध्यान से भरे हुए हृदयवाला जब आधे मार्ग तक पहुँचा, तभी स्वामी रहित एक आवास घर की दीवार परिकर्म रहित होने से जल-वृष्टि द्वारा शिथिल होती हुई भाग्य-योग से उसी के ऊपर गिर गयी। उसके आघात से उसका शरीर टुकड़े-टुकड़े हो गया। दीवार के गिरने से उसके नीचे शरीर दब गया। अतः गुप्त हो जाने से कोई भी नहीं जान पाया। मरकर जुआरी - कृत संयोग से तुम्हारी ही कुक्षि में गर्भ रूप में उत्पन्न हुआ। कहा भी है
विचित्रा हि कर्मणां गतिः ।
अर्थात् कर्मों की गति बड़ी विचित्र है। उसने सोचा कुछ ओर था, हुआ कुछ ओर ही । एक माह बाद गर्भचिह्न प्रकट होने लगे। तब सखी ने औषध के प्रयोग से गर्भ का नाश करवाया। वहाँ से च्युत होकर रूपसेन का जीव इसी नगर में राजभवन के निकट की भूमि में सर्प रूप से उत्पन्न हुआ। उसके बाद