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धन्य - चरित्र / 104 तुम्हारी माता ने तुम्हारा आशय जानकर पाणिग्रहण करवा दिया । बहुत दानपूर्वक तुम्हे विदा किया। तुम इस राजा के साथ यहाँ आ गयी ।
एक बार वह सर्प घूमता हुआ राजभवन में प्रविष्ट हुआ और वहाँ घूमने लगा । दैव-योग से तुम दोनों आवास वाटिका में क्रीड़ा कर रहे थे, वह चला आया । तुम्हें देखा, तो मोह का उदय हुआ । उससे जड़ीभूत होता हुआ एकटक एक ही जगह स्थित होता हुआ तुम्हें देखते हुए हर्षित होने लगा। उस समय भयभीत होते हुए तुम घर के अन्दर जाने के लिए उठी, तो वह भी मोहवश तुम्हारे पीछे-पीछे आने लगा। तुम भय से चिल्लायी, तो राजा के सेवकों ने उसे मार डाला। मरकर वह इसी नगरी में कौए के रूप में उत्पन्न हुआ। वह भी नाटक देखने के समय तुम्हे देखकर हर्षपूर्वक कूजन करने लगा । तब रस-भंग होने से राजा ने उसे मार डाला। वहाँ से च्युत होकर वह हंस बना । वहाँ भी वटवृक्ष के ऊपर बैठ हुआ तुम्हे देखकर विहवल बना और कौए के अपराध - स्थान पर स्वयं मारा गया ।
मरकर हरिण रूप से उत्पन्न हुआ। वहाँ भी शिकार के समय तुम्हे देखकर मोह के उदय से भागने के लिए समर्थ नहीं हुआ और नृत्य करने लगा । राजा ने उसे मारा और उसका मांस पकवाकर तुम दोनों सहर्ष उसका भक्षण कर रहे हो। ऐसी कर्मों की गति है । यह जानकर हमने सिर हिलाया, अन्य कोई कारण नहीं है।"
यह सारी वार्त्ता सुनकर राजा व रानी संसार - वास से विरक्त हो गये। “हा! क्या ऐसा संसार का स्वरूप है?"
यह कहकर राजा ने पुछा - "हे मुने! क्या राग में आसक्त जीवों की यही गति होती है?”
मुनि ने कहा - "राजन! किस निद्रा में सोये हुए हो? हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, रति-अरति, पर-परिवाद, माया - मृषावाद, मिथ्यात्व -इन अट्ठारह दोषों के मध्य से एक - एक भी दोष एक ही भव में आचरित किया हुआ अनन्तकाल तक यावत् अनंत भवों तक नरक - निगोद आदि में भटकाता है । अनेक विरूप रूपवाले विपाकों को प्राप्त कराता है। उसका स्वरूप सर्वज्ञ केवली ही जानते हैं, पर एक मुख से कहने में समर्थ नहीं है। इसके विपाक विचित्र हैं- देव मरकर पशु होता है, पशु भी मरकर देव होता है। माता मरकर पुत्री रूप से पैदा होती है और पुत्री भी मरकर माता के रूप में पैदा होती है । पत्नी भी माता के रूप में पैदा होती है। पिता पुत्र के रूप में तथा पुत्र भी पिता अथवा सेवक के रूप में पैदा