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धन्य-चरित्र/96 व वापस आकर काँव-काँव करने लगा। इस प्रकार दो-तीन-चार बार भी उड़ाये जाने पर भी व मोह के उदय से नहीं गया। तब कुद्ध होते हुए राज ने गोलिका के प्रयोग से उसे मारकर भूमि पर गिरा दिया।
वह मरकर उसी नगर के उपवन में सुन्दर हंस के रूप में उत्पन्न हुआ। गर्भ की स्थिति पूर्ण होने पर हंस रूप में पैदा हुआ। वृद्धि को प्राप्त होते हुए आहारादि के लिए तालाबों में, वृक्षों पर घूमते हुए स्वेच्छा से काल का निर्वहन करने लगा।
एक बार ग्रीष्म ऋतु में सघन वृक्षों के कुंज–प्रदेश में जलयंत्र से सिचिंत शीतल भूमि प्रदेश में सघन छाया द्वारा ताप की पीड़ा को निवारण करनेवाले वट वृक्ष के नीचे सुनन्दा तथा राजा विराजमान थे। उनके आगे गायकजन अनेक रस गर्भित उक्तियों द्वारा गीत-गान कर रहे थे। ऐसे समय में रूपसेन का जीव हँस परिभ्रमण करते हुए उसी वट वृक्ष की शाखा पर आकर जैसे ही बैठा, वैसे ही सुनन्दा को देखा। पुनः मोह का उदय होने से पुनः-पुन: उसी का मुख देखते हुए मधुर स्वर से शब्द करने लगा और एक दृष्टि से सुनन्दा को ही देखने लगा।
उसी समय कोई कौआ उड़ता हुआ उसी हंस के पास आकर बैठ गया। उस कौए ने राजा के शुभ्र वस्त्र देखकर उस पर बीट कर दी। उसे देखकर कुपित होते हुए राजा ने जैसे गोलिका यंत्र धनुष्क हाथ में लेकर गोली छोड़ी, वैसे ही अवसर को पहचाननेवाला कुटिल कौआ तो उड़ गया। गोली मोह से मूर्च्छित हंस को लग गयी। उसके आघात से तड़फड़ाता हुआ हंस राजा के सामे गिर गया।
सभ्यजनों ने कहा-"संगति का फल ऐसा ही होता है।"
उस हंस को देखकर राजा भी करुणार्द्र हो गया। पर क्या किया जाये? होनहार बलवन होती है।
हंस क्षण भर में ही मरकर उसी देश के जंगल में हरिणी की कुक्षि में हरिण के रूप में उत्पन्न हुआ। गर्भ की स्थिति पूर्ण होने पर हरिण माता का दूध पीता हुआ, उसके साथ घूमता हुआ वृद्धि को प्राप्त होकर युवा होता हुआ हरिणों के यूथ के साथ घूमने लगा। तृण तथा जल-वृत्ति से संतुष्ट होता हुआ सुखपूर्वक काल निर्गमन करने लगा।
एक बार सुनन्दा ने राजा से पूछा-"आप जब शिकार खेलने के लिए वन में जाते हैं, तो कैसे अत्यधिक चंचल गतिवाले हिरणों को अपने वश में करके उनका शिकार कर लेते हैं?"