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धन्य - चरित्र / 86 चतुरता ! कैसा मुख - नेत्र - हाथ-पैर आदि का हाव-भाव ! मानो काम ही शरीर धारण करके चल आया हो। इस प्रकार के इस पुरुष को देखकर इसके साथ पूर्वदृष्ट दम्पति के विलास का मनोरथ प्रवर्तित होता है । "
तब उसकी सखी ने हँसकर कहा - "हे स्वामिनी ! पहले तो पुरुष के नाम - मात्र से रुष्ट होकर लाल नेत्रोंवाली बन जाती थी और अब अपरिचित के दर्शन-- - मात्र से क्यों आतुर बनती हो? आखिरकार मेरा कहा हुआ सत्य ही साबित हुआ, कि
पूर्वापरं विचार्य वक्तव्यम् ।
अर्थात् पूर्वापर विचार करके ही बोलना चाहिए ।"
सुनन्दा ने कहा - " हे सखी! मेरा मूर्खत्व मुझ में ही आया । पर अब तुम क्यों जले हुए पर नमक छिड़कने के समान बोलती हो? किसी भी उपाय से मेरा मनोरथ पूर्ण करने में ही तुम्हारा कौशल्य है - यही हार्द है ।"
सखी ने कहा—“हे स्वामिनी ! तुम्हारा मनोरथ तो अभी ही पूर्ण कर दूँ ऐसी मुझमें कुशलता है । परन्तु पूर्व में तुमने पुरुष - आगमन के निषेध के छल से मनोरथ रूपी भवन के द्वार पर साँकल लगा दी है। फिर भी धैर्य धारण करो । पहले इसके साथ परिचय करके फिर मनोरथ पूर्ण कराऊँगी । सर्वप्रथम दृष्टि - मिलन प्रीतिलता का बीज है। इसलिए अन्योन्य दर्शन के जल से सिंचित करने से ही यह लता फलवती होती है। इसलिए तुम अपने आशय - गर्भ रूप पदार्थ लिखकर मेरे हाथ में समर्पित करो। उसे लेकर वहाँ जाकर उसके हाथ में दूँगी । यदि चतुर होगा, तो शीघ्र ही उत्तर देगा। नहीं तो मूर्ख के मिलन से क्या सुख? शास्त्र में भी कहा है
सज्जनस्य घटिकामिलनतुल्यो मूर्खस्य समग्रावतारोऽपि नागच्छति ।
अर्थात् सज्जन के घड़ी भर के मिलन के तुल्य मूर्ख का सम्पूर्ण जीवन भी नहीं होता। इसलिए सुनन्दा द्वारा पत्रिका में स्व- आशय- गर्भ को पद्यार्थ के रूप में लिखकर दे दिया गया । प्रिय सखी ने उस संदेश को ले जाकर किसी भी तरह से रूपसेन के पास जाकर उसे प्रच्छन्न वृत्ति से पढ़ाया । जैसेनिरर्थकं जन्म गतं नलिन्या ।
यया न दृष्टं तुहिनांशुबिम्बम् ।।
अर्थात् नलिनी का जन्म व्यर्थ ही गया, जिसके द्वारा चन्द्र- बिम्ब का दर्शन नहीं किया गया ।
यह पढ़कर अपना चातुर्य दिखाने के लिए रूपसेन ने प्रत्युत्तर लिखकर दिया, जिसे लेकर घर आकर सुनन्दा के हाथ में अर्पित किया । उसने भी पढ़ा