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धन्य-चरित्र/91 दीपक बुझा दो।' इसलिए मैंने दीपक बुझा दिया है। घड़ी, आधी घड़ी मात्र ही हुआ होगा, जरा-सी आँख लगी है। अतः अभी उसकी तबियत पूछने का अवसर नहीं है। अभी तो जोर से बोलना भी नहीं चाहिए। जब तक उसकी सुखपूर्वक आँख लगी हुई है, तब तक तो घर के अन्दर भी नहीं आना चाहिए। जब वह स्वयं जग जाती है, तब कुशल-क्षेम पूछना।"
तब एक सखी ने कहा-“रानी के महल में चलते हैं। जब तक सुनन्दा की आँख लगी हुई है, तब तक रानी जी के कहे कार्य को सम्पन्न कर लेते हैं। पुनः लौटते हुए सुनन्दा की खोज-खबर लेंगे।" यह कहकर सखी वृन्द दूसरे भवन में चली गयीं।
उधर प्रिय सखी के द्वारा सुनन्दा के पलंग पर छोड़ा गया वह धूर्त कामातुर होता हुआ कर-स्पर्शादि के द्वारा उद्दीप्त कामवाला होता हुआ सबसे पहले सुरत-क्रिया करने लगा।
सुनन्दा ने सोचा-"बहुत दिनों से मिलन को आतुर मेरे इस प्रिय को कैसे रोका जाये? सुखपूर्वक इच्छा की पूर्ति हो जाये और मेरे विरहाग्नि भी शांत हो जाये। वार्ता आदि तो फिर कभी मिलने पर करेंगे। अगर सखीवृन्द आ गयी, तो अन्तराय न पड़े।"
इस प्रकार जानकर सुनन्दा ने कुछ भी नहीं कहा। वह बलशाली धूर्त यथेच्छापूर्वक सूरत-क्रीड़ा करके जब तक निवृत्त हुआ, तब तक तो हाथ में दीप लेकर सखी वृन्द पुनः आयी। खोज-खबर के लिए स्थित प्रिय सखी ने दूर से ही देखकर दौड़कर कक्ष में जाकर कहा-"शीघ्र ही अपने प्रिय को भेज दो। क्या करें? अपने ही कर्मों का दोष है, जो कि बहुत दिनों से इच्छित संयोग होने पर भी स्वेच्छा से एक बात तक नहीं की। अभी तो जल्दी जाइए, पुनः भाग्योदय से मिलन होगा, तब दिल में रही हुई सभी बातें करेंगे।"
धूर्त ने भी विचार किया-अब रुकने से क्या लाभ? अज्ञात रहना ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार विचार करके सुरत-क्रीड़ा से च्युत हुए हारादि आभूषण लेकर शीघ्र ही उसी मार्ग से उतर गया। मन में हर्षित होता हुआ सोचने लगा। आज मैं अच्छा शगुन लेकर निकला, जो राजकुमारी के साथ प्रथम सुरत सुख मिला तथा धन का भी लाभ हुआ। इस प्रकार प्रसन्न मन से वह अपने स्थान पर लौट गया। प्रिय सखी भी जल्दी से निःश्रेणी छिपाकर सुनन्दा के पाँव दबाने लगी।
तब तक दीपक हाथ में लेकर सखी-वृन्द भी आ पहुँचा। सुनन्दा को रानी द्वारा कही हुई कुशलता पूछने लगी। सुनन्दा ने भी अपने अंगों आदि का संकोच करते हुए मंद स्वर से कहा-"सखियों! पहले तो मुझे बहुत वेदना हुई।