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धन्य-चरित्र/88 इस बीच कुछ दिनों बाद कौमुदी महोत्सव जानकर राजा ने सम्पूर्ण नगर में पटह बजवाया-“हे नगरजनों! अमुक दिन महोत्सव है। उस दिन प्रत्येक घर में रहे हुए दुखित, व्याधि से पीड़ित जरा से जर्जरित को छोड़कर सभी लोग नगर के बाहर प्रति वर्ष होनेवाले इस महोत्सव के स्थान रूपी उद्यान में आने चाहिए। अगर कोई नहीं आया, तो वह राजा के अपराध का पात्र बनेगा।" यह पटह सुनकर सभी नागरिक महोत्सव में जाने की तैयारी करने लगे।
सुनन्दा ने भी अपने परिजनों के मुख से यह सब सुनकर मन में विचार किया कि "अहो! मेरे मनोरथ को सफल करने का दिन प्राप्त हुआ। अगर करने में समर्थ हुई, तो उसी दिन मेरे प्रिय के संयोग का अवसर है।"
सखी से कहा-"किसी भी तरह रूपसेन को महोत्सव की बात कहकर मिलन का अवसर बताओ कि उस रात्रि में कोई भी मनुष्य नगर में नहीं रहेगा। अतः तुम भी शरीर की किसी व्याधि का बहाना करके घर पर ही रुक जाना। मैं भी कोई छल करके घर पर ही रुक जाऊँगी। बाद में पहर रात्रि बीत जाने के बाद मेरे आवास के पिछले भाग में झरोखे के एकान्त स्थान में मोटी रस्सी लटकवा दूंगी। तुम वहाँ रस्सी के अवलम्बन से ऊपर आकर मेरे आवास को अलंकृत करना। बहुत दिनों से आतुर हम दोनों का संयोग होगा। लाखों सुवर्ण से भी अति दुर्लभ वह दिन है। अतः भूलना मत। इस प्रकार संकेत करके
आओ।"
सखी ने भी यथा अवसर वह सब घटना रूपसेन को कहकर संकेत का निर्णय किया। वह भी चिर-इच्छित संयोग के निर्णय को सुनकर हर्ष से पुलकित हृदयवाला होकर अच्छा कहकर अपने स्थान पर चला गया।
प्रिय सखी ने भी लौटकर सुनन्दा को सारी बात बता दी। वह भी यह सुनकर हर्ष से अपनी मनोरथ रूपी माला गूंथने लगी। बहुत ही मुश्किल से चार–पाँच दिन का समय बिताया। महोत्सव का दिन आने पर राजा अपने परिवार सहित नगर से बहार निकला। साथ में प्रजा भी निकली। सुनन्दा को बुलाने माता स्वयं आयी। उससे पहले ही सुनन्दा मस्तक पर औषध का लेप करके पलंग पर औंधा मुख करके लेट गयी।
यह देखकर माता ने पुत्री से पूछा-"पुत्री! तुम्हें क्या दुःख है?
माता द्वारा पूछने पर सुनन्दा ने मंद व म्लान स्वर में प्रत्युत्तर दिया। "आज दिन की छ: घड़ी शेष रहने पर ही मस्तक में अकथनीय आर्ति उत्पन्न हुई है। मुख ऊपर करने में भी समर्थ नहीं हूँ।
माता ने कहा-"तब तो मैं वन में नहीं जाऊँगी। तुम्हारे ही पास बैलूंगी।"