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धन्य-चरित्र/87 उत्पत्तिरिन्दोरपि निष्फलैव,
दृष्टा विनिद्रा नलिनी न येन। अर्थात् चन्द्रमा की उत्पत्ति भी निष्फल ही है, जिसने कि विकसित पद्मिनी नहीं देखी।
इस प्रकार अभिप्राय-युक्त प्रत्युत्तर मानकर उसे गाढ़ अनुराग हो गया। सखी को कहा-"जैसा सोचा था, वैसा ही निपुण प्रतीत होता है। अतः पुनः तुम वहाँ जाकर प्रीतिलता के बीज रूप बीटक को देकर-प्रतिदिन दर्शन देना, अन्यथा भोजन नहीं करूँगी-यह विज्ञप्ति कराकर आना।"
सखी ने पुनः कुमार के समीप जाकर, भौंहों की संज्ञा से एकान्त में ले जाकर जैसे कोई जानता व सुनता न हो, वैसे कथन के योग्य घटना कही। वह भी उस आश्चर्यकारी कथन को सुनकर उस सखी को बोला-"हे सुभ्रू! वह तो लोक में पुरुष-द्वेषिणी के नाम से सुनी जाती है, तो इस प्रकार मुझ पर गाढ़ अनुराग कैसे हो सकता है?"
__ उसने कहा-"श्रेष्ठी! वह तो तुम्हारे दर्शन-मात्र से प्रेम-पंक में निमग्न होकर जल बिन मीन की तरह तुम्हारे विरह-दुःख से दुःखित होती हुई एकमात्र तुम्हारा ही ध्यान ध्याती हुई तुम्हारी ही बातें करती है। दूसरा कुछ भी नहीं जानती। अतः उसके हाथ से दिये गये इस बीटक को ग्रहण करो। आज से आगे प्रतिदिन एक बार अति दर्शन-दान का प्रत्यायक रूप ताली बजाकर करार देवें।"
कुमार भी रूप, धन, यौवन तथा चातुर्य के गर्व से गर्वित होकर सखी के कहे हुए वाक्यों को सुनकर प्रेम-पाश में बंधा हुआ विचार करने लगा-"अहो! जो पुरुष के नाम-मात्र से भी अत्यन्त क्रुद्ध होती थी, वह मेरे ऊपर स्वतः ही गाढ़ अनुरक्त होती हुई विरह दुःख को धारण कर रही है, उसे त्यागना कैसे शक्य है? अबला के प्रार्थना बल से कैसे छूटा जा सकता है?"
इस प्रकार कहकर बीटक के ग्रहणपूर्वक हस्त-ताल-दान से करार किया। सखी ने कुमार से वचन लेकर हर्षपूर्वक सारी बात जाकर सुनन्दा को बतायी। वह हर्ष में निमग्न हो गयी। उस दिन से लेकर प्रतिदिन कुमार वहाँ आकर दृष्टि-मिलन करता। सुनन्दा भी राग रूपी कसौटी पर उल्लिखित अति तीक्ष्ण कटाक्ष रूपी बाणों द्वारा कुमार के कमल दल के समान कोमल देह को व्यथित करती थी। मोह से वह भी उसे ही अति सुख मानते हुए गाढ़ अनुराग से अनुरक्त होकर अहर्निश उसी का स्मरण करता था। इस प्रकार दोनों के ही दिन विरह-वेदना सहते हुए व्यतीत हो रहे थे।