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धन्य-चरित्र/84 में और वन-उपवन आदि में गीत, नृत्य, आतोद्य, पुष्प आदि के आश्चर्य देखता हुआ सुखपूर्वक काल का निर्वहन करता थ। नित्य ही वह कौतुक-प्रिय रहता था।
कितना ही समय बीत जाने पर वह सुनन्दा यौवन को प्राप्त हुई। एक बार सखियों से घिरी हुई अपने आवास के ऊपर लकड़ी के बने हुए छत के छज्जे पर खेल रही थी। समस्त कामों के उद्दीपन का कारण रूप, आम्र-मंजरी के खिलने स्वरूप एवं कोयल के पंचम स्वर रूपी सैन्य से युक्त वसन्त का आगमन हो गया था।
इसी अवसर पर किसी महा-इभ्य के आवास की ऊपरी भूमि में सुगन्धित जल छिड़ककर स्थान-स्थान पर बहुत सारे पुष्पों की रचना की गयी थी। चंदन, कस्तूरी, अम्बर से मिश्रित कृष्णागुरु घटिका में जल रहा था। उससे समस्त भवन सुगन्ध से आपूरित था। चारों दिशाओं में बहुत सारे सुगन्धित पुष्पों की जाली व पर्दा रचा हुआ था। उपरितन शोभा देता था। उसके नीचे विचित्र सुकुमार तूले से निर्मित तकिया व आच्छादन वस्त्र आदि कृत रचनापूर्वक स्वर्णमय पलंग में सुकुमार, उज्ज्वल, स्नान-मज्जन के बाद चंदन विलेपन किये हुए, आभूषण पहने हुए, मखमल के समान कश्मीर में बने हुए वस्त्र के आच्छोटन रूप रचना से रचित वस्त्रादि के द्वारा शृंगार करके परस्पर अभिनव स्नेह-बन्धन से गूंथे हुए की तरह बाँहों से गरदन को लपेटे हुए, अत्यधिक अद्भुत सुख-विलसित शय्या के चारों ओर सखी-वृन्द से सेवित, विषय को उद्दीपन करनेवाले वर्णक, कविता, पद्यमय, पंचम राग में गीतों को गाते हुए कटाक्ष-विक्षेप, हास्य-विलास, ताली-दान आदि के द्वारा उत्साहपूर्वक वह दम्पति स्थित था।
___उन सभी क्रियाओं को अति ऊँचे आवास पर स्थित सुनन्दा ने देखा और देखकर अवस्था के उदय के बल से कुछ कामोद्दीपन हुआ। वह प्रीतिपूर्वक टकटकी लगाकर देखने लगी। जैसे-जैसे देखती थी, वैसे-वैसे उसका काम दीप्त होता जाता था। वह सोचने लगी कि अगर ऐसा ही सुख मुझे भी मिले, तो अच्छा हो।
सात्त्विक भाव के उदय से शरीर में जड़ीभूत होती हुई देखने लगी, कुछ बोली नहीं। बल्कि उस दृश्य का अनुमोदन करती हुई पुलक के उद्गम से शृंगार रस का रस लेने में रसिका बन गयी।
उस समय उसकी प्रिय सखी ने पूछा-"स्वामिनी! एकटक क्या देख रही हो?"
इस प्रकार पूछने पर जब वह कुछ नहीं बोली, तब सखी ने अपनी