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धन्य-चरित्र/77 देखते हैं। इसे गुणनिधि ही मानते हैं। यह जो कुछ भी करता है, वह सभी आपके मन में अत्यन्त कल्याण के रूप में प्रतिभासित होता है, पर इसका चरित्र तो हम ही जानते हैं, अन्य कोई नहीं जानता। स्नेहहीन इसने हमारे घर से चोरों की तरह बहुत सारे धन को ले लिया और भाग गया। यहाँ आकर उस धन से राजवर्ग को कुछ भी रिश्वत आदि देकर इस प्रकार की महत्वपूर्ण अवस्था को प्राप्त करके बैठ गया है। लक्ष्मी से क्या नहीं होता? कहा भी है
सर्वे गुणाः कांचनमाश्रयन्ते। अर्थात् सभी गुण धन को आश्रित करके ही रहते हैं। वैभव की खान होने के कारण ही अति खारा व अपेय जल होने पर भी सागर रत्नाकर की प्रसिद्धि को प्राप्त होता है। अतः हे तात! हृदय से वक्रता को छोड़कर समृद्धि का भाग हमें अर्पित करें।"
___ इस प्रकार पिता-पुत्रों के परस्पर होनेवाले कलह का मूल स्वयं को मानते हुए बुद्धिमान धन्य लक्ष्मी आदि से भरे हुए घर को छोड़कर पुनः निकल गया। प्रयाण के समय शुभ शकुनों के रूप में चास पक्षी तथा काग आदि के स्वर से सुशब्द, चेष्टा आदि द्वारा प्रेरित उनको वंदन करके मगध देश की ओर रवाना हुआ।
विविध ग्राम-नगर-वन-उपवन को देखते हुए एकाकी सिंह की तरह निर्भय होकर चलने लगा। इसी समय नदी के समीप अशोक वृक्ष के नीचे शांत-दान्त-समग्र गुण राशि की दो खानों के रूप में धर्म के मूर्तिमन्त स्वरूप मुनि युगल को देखा। धन्य ने उन्हें देखकर चन्द्र के उद्योत में चकोर की तरह, मेघ दर्शन में मयूर की तरह, अपने पति के दर्शन में सती स्त्री की तरह हर्ष से भरे हृदय से विचार करने लगा-"अहो! मेरा भाग्य जागृत हुआ, जो इस गहन वन में, विजन प्रदेश में अचिन्तित चिंतामणि के लाभ से भी कितने ही शकुन होते हुए दिखायी पड़ रहे हैं, ग्रीष्म ताप की पीड़ा से तृषित को मानसरोवर की तरह मुनि का मिलना हुआ। इसभव व परभव में द्रव्य व भाव तृषा को बुझानेवाला अति-दुष्कर मुनि का संयोग हुआ।"
___ इस प्रकार विचार करते हुए हर्ष से पुलकित हृदयवाला होकर पंच-अभिगम आदि से विधिपूर्वक तीन प्रदक्षिणा देकर पंचांग-प्रणिपातपूर्वक वंदना करके
गोयम सोहम्म जंबू पभवो सिज्जभवाइया। सव्वे ते जुगप्पहाणा तइ दिढे ते सवि दिट्ठ।। अहो! ते निज्जिओ कोहो, अहो! माण पराजओ। अहो ते अज्जवं साहू! अहो ते मुत्तिमत्तवो।।