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धन्य-चरित्र/75 किया हुआ शुभाशुभ कर्म अवश्य ही भोगना पड़ता है।
__इत्यादि हेतुओं से पूर्व में पुण्योदय से सब कुछ अनुकूल था। पर अब तो पाप का उदय होने से सब कुछ नष्ट हो गया। ज्यादा क्या कहूँ?
दूसरी बात यह है कि घर में पुत्र-नारी आदि पारिवारिक- जनों के मध्य कोई भी एक भाग्यशाली होता है, तो उसी के भाग्य से सारा कुटुम्ब सुख का अनुभव करता है। उसके चले जाने पर तो वही स्वजन-वर्ग दुःख का अनुभव करता है। इस शास्त्रोक्ति को प्रत्यक्ष रूप से देखकर अनुभूत की है।
हे पुत्र! कलावान, भाग्यनिधि रूप तुम्हारे चले जाने पर किसी की चुगली से प्रेरित राजा भी प्रतिकूल हो गया। उसने हमें कारागार में डालकर बहुत दण्ड देकर धन भी ग्रहण कर लिया। कुछ धन चोरों द्वारा चुरा लिया गया। कुछ धन अग्नि ने भस्मसात् कर दिया। कुछ धन मूढ़ व्यापार क्रिया द्वारा नष्ट हो गया। जो कुछ धन भूमिगत निधान के रूप में था, वह दुष्ट देवों द्वारा हरण करके मिट्टी रूप कर दिया गया। इतना धन नष्ट हुआ कि एक दिन के निर्वाह जितना भी अन्न नहीं बचा। तब कृष्ण पक्ष के चन्द्रमा के समान कला रहित हम सभी के जगतमित्र! महान कष्ट से तुम्हारी खोज करते हुए किसी पूर्वकृत भाग्य के उदय से तुम्हारे दर्शन हुए। तुम्हारे दर्शन-मात्र से चारों ओर से अभ्युदय होने से मेरा दुःख नष्ट हुआ। चित्त आनंद से सरोबार हो गया।"
इस प्रकार पिता के वचनों को सुनकर धन्य ने सविनय प्रणाम करके कहा-“हे तात! मुझ सेवक का भी प्रचुर पुण्योदय हुआ है कि पिता के चरणों के दर्शन हुए। यह राज्य-सम्मान, सम्पत्ति की प्राप्ति आदि आज ही सफल हुए हैं। अतः अब बीते दुःख को विसारकर, सुखानंद में मग्न होकर रहें। मैं तो आपके आदेश का पालन करनेवाला किंकर हूँ। कोई भी अधीरता मन में न रखें।"
इस प्रकार माता, ज्येष्ठ भ्राताओं, भाभियों आदि को मधुर वचनों द्वारा संतृप्त करके वस्त्र-धन-आभरण आदि से सत्कार किया। सज्जनों की यही रीति युक्तिमती है। जैसे कलाओं से युक्त चन्द्रमा अपने आश्रितों को उदित बनाता हुआ कुमुदों को श्री शोभा देता है, इसी प्रकार अन्तःकरण की प्रीति से युक्त धन्य भी समस्त कुटुम्ब को विविध सुखों के प्रकारों से पोषित करने लगा। फिर भी उस धन्य रूपी सूर्य की द्युति का तेज तामस प्रकृतिवाले अग्रजों को सहन नहीं हुआ। युक्त भी है, क्योंकि अंधकार दिन के भय से अन्य का तेज भी सहन नहीं कर पाता है।
एक बार धन्य राजसभा में जाकर राजा को नमन करके राज्य-कार्य-चिंता को करके पुनः राजा के आदेश को प्राप्त करके उचित वेला में सुखासन पर