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धन्य-चरित्र/80 जैसा करता है, वैसा पाता है। परन्तु विषय की इच्छा-मात्र से भी असेवित विषयवाला भी दुर्गति को प्राप्त करता है। इस अर्थ में एक कथानक है, उसे सावधान मन से सुनो।" धन्य ने कहा-“बड़ी कृपा होगी। आप फरमावें ।” मुनि ने कहा
सुनन्दा-रूपसेन की कथा पृथ्वीभूषण नामक नगर में कनकध्वज राजा राज्य करता था। उसकी यशोमति नामक नारी थी। उनके गुणचन्द्र व कीर्तिचन्द्र नामक दो पुत्र थे। एक सुनन्दा नामक पुत्री थी, जिसका रूप-यौवन गुणों से भरा हुआ था। वह चौंसठ कलाओं में कुशल थी। वह बाल-भाव में अनुदय कामावस्थावाली, सखियों से घिरी हुई सातवीं मंजिल पर स्थित होकर नगर के स्वरूप को देख रही थी। अति ऊँचे प्रसाद पर स्थित होने से दृष्टि बहुत दूर तक जाती है।
इसी समय एक महा-इभ्य के घर में एक श्रेष्ठ तरुणी रूप-सौन्दर्य-गुण से देवियों को भी जीतनेवाली थी। जिनके विनय आदि गुण से, माधुर्य-वचन से और दर्शन-मात्र से क्रोधियों का भी क्रोध उपशमित हो जाता था। इस प्रकार की कामिनी का पति कुछ भी सच्चा-झूठा अभ्याख्यान देकर दया रहित होकर उसे चाबुक से मार रहा था। वह पुनः-पुनः पति के चरणों में सिर रखकर चाटु-वचनों से कह रही थी-"स्वामी! प्राणधार! मैंने कोई भी अपराध नहीं किया। किसी दुष्ट चित्तवाले के कह देने से आप मुझे निरर्थक क्यों मारते हो? अच्छे कुल मैं उत्पन्न मैंने आपकी आज्ञा के विरुद्ध आज तक कुछ भी नहीं किया। आगे भी नहीं करूँगी। जब उसकी खोज-बीन से यथार्थ का निर्णय हो जायेगा। तब आपको पश्चात्ताप ही होगा। अतः हे प्राणनाथ! इस झूठे दोष की खोज-बीन करें। जब मुझ में यह दोष सत्य साबित हो, तभी आपको जो अच्छा लगे, वही करना। निरर्थक मारने से आपको क्या हासिल होगा?
इस प्रकार विनयपूर्वक पुनः-पुनः प्रणामपूर्वक प्रार्थना व विज्ञप्ति करती थी, फिर भी वह पुरुष ताड़ना देने से पीछे नहीं हटा। यह सब देखकर सुनन्दा ने अपनी सखी से कहा-“सखी! देखो! इस पुरुष की निर्दयता। इस प्रकार की रूप-यौवन से युक्त विनयवती, गुणवती स्त्री के प्रति कुछ भी मिथ्या जानकर चाण्डाल की तरह ताड़ना करता है। थोड़ी भी दया नहीं आती। यह देखकर मेरा हृदय करुणा से भेदित होता है। पर इसको अपनी प्राणप्रिया पर लेश-मात्र भी दया का उदय नहीं होता।
इसलिए स्त्रियों के लिए पुरुष के अधीन रहना दुःख का कारण है। यद्यपि पुरुष घर का नायक होता है-यह लोकोक्ति है, पर यह भी यत्किचिंत ही