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धन्य-चरित्र/57 करने लगा कि "अहो! मुनि का ज्ञान तो देखो! रात्रि में मेरे द्वारा देखा गया स्वप्न कैसे जान लिया? अतः इसी कारण से आगे भी विद्युत्पात आदि का भी कथन सत्य ही होगा। इसलिए मुझे नूतन घर में प्रवेश नहीं करना चाहिए।"
इस प्रकार मन में निर्धारित करके मुहूर्त्तकाल प्राप्त हो जाने पर भी भय से राजा ने नये घर में प्रवेश नहीं किया। उसी रात्रि में विद्युत्पात से प्रसाद गिर गया।
तब राजा ने प्रासाद-पतन के द्वारा मुनि के ज्ञान के अतिशय को देखकर हृदय में निर्णय किया कि जैनों से ऊपर कोई भी ज्ञाता नहीं है। अतः प्रभात होते ही मिथ्या कदाग्रह को दूर करके राजा ने अपनी आत्मा में तप व क्रियावाले सोमिल मुनि को बुलाकर त्रिकरण शुद्धि द्वारा भूमि पर मस्तक लगाकर मुनि को वंदन किया। मुनि द्वारा बताया गया जैन धर्म अंगीकार किया एवं परम-आर्हत् मार्ग का आराधक हुआ।
राजा के द्वारा धर्म अंगीकार करने से श्री जिनधर्म की उन्नति में खूब अभिवृद्धि हुई। बहुत-से लोगों ने मिथ्या अभिनिवेश का त्याग करके श्री जिन धर्म को अंगीकार किया।
तब भूपति ने शासन-उन्नति की वृद्धि के लिए और अपनी भक्ति के प्रदर्शन के लिए धान उछालना, दान, मान, गीत, नृत्य, बाजे आदि के साथ मंत्री आदि को भेजना आदि अनेक प्रकार के उत्सव के साथ भक्ति रस से भरे हृदय से प्रणत लोगों के साथ सोमिल मुनि को रुद्राचार्य के पास भेजा।
रुद्राचार्य के पास आये हुए मुनि ने भक्ति से विधि-पूर्वक बारह आवर्त्त युक्त वंदन आदि किये जाने पर, साथ में आये हुए अमात्य आदि राजपुरुषों द्वारा आचार्य का वस्त्रादि से पूजन तथा प्रभावना आदि की गयी। सभी लोगों ने सोमिल ऋषि की खूब प्रशंसा की। बहुत ही गर्वपूर्वक दुर्वादि के निराकरण आदि की घटना का निवेदन किया। भक्ति के उत्सेक से पुनः-पुनः की गयी प्रशंसा को सुनकर रुद्राचार्य अन्दर ही अन्दर असूया के दोष से जलने लगा। लोक-लज्जा से कुछ भी बोलने में समर्थ नहीं हुआ। अतः असूया के विचार मन में द्वेष रूप से परिणत होने लगे। जैसे-जैसे सोमिल ऋषि द्वारा की गयी शासन की उन्नति को सुनता, वैसे-वैसे हिम से हत कमल के समान मुख म्लान होने लगा। अतः द्वेष के कारण लौकिक व्यवहार द्वारा भी आगमन की कुशल वार्ता भी नहीं पूछी।
तब वे प्रभाकर आदि पूर्वोक्त चारों मुनि तथा गच्छ में रहे हुए अन्य भी सुविहित साधु रुद्राचार्य का निरादर, असूया, जलन आदि को देखकर योग्य होते