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धन्य-चरित्र/55 उत्पन्न हुई।
फिर सभी महा-महोत्सव से युक्त होकर आचार्य की ओर चले। कुछ दिनों में रुद्राचार्य के समीप पहुँचे। जैन मार्ग में कुशल भट्टारक आदि बहुत-सी उपमाओं द्वारा स्तुति किये जाते हुए उपाश्रय में प्रविष्ट हुए। जैसे"वादी-गरुड़-गोविन्द! निर्जित वादी वृन्द! षट् भाषा वल्लिमूल! परवादी मस्तक शूल! वादी कन्द कुट्टाल! वादी वृन्द भूपाल! वादी समुद्र अगस्ति! वादी गगन गभस्ति! वादी गोधूम घरट्ट! वादी मान मरट्ट! वाचाल सरस्वती! शिष्यी कृत बृहस्पति! सरस्वती भाण्डागार! चतुर्दश विद्या अलंकार! सरस्वती कण्ठाभरण! वादी विजयलक्ष्मी शरण!" इत्यादि अनेक उत्कृष्ट उपमाओं की वर्षा से एवं बिरुद की हवाओं से कर्णों को अवरुद्ध करती हुई ध्वनियों से नीति-निपुण भी रुद्राचार्य रोष-मुद्रित हो गये। क्योंकि
महतोऽपि भवेत् द्वेषः सेवके तुङ्गतेजसि।
कामदेवं महादेवः किं सेहेऽधिकविक्रमम् ।। अर्थात् बड़े लोगों को भी सेवक के अधिक तेज को देखकर द्वेष पैदा हो जाता है। जैसे–महादेव कामदेव के अधिक विक्रम को देखकर रोष के उदय से क्या उसे सहन करते हैं? अर्थात् नहीं करते।
संघ सहित बन्धुदत्त मुनि द्वारा वंदन किये जाने पर भी, बहुत सी स्तुतियों द्वारा स्तुति किये जाने पर भी वे रुद्राचार्य ईर्ष्यालु होकर एक भी शब्द नहीं बोले। जलते हुए पाषाण पर पानी डालने पर क्या वह पानी को नहीं सोख लेता? अतः रुद्राचार्य ने बन्धुदत्त मुनि की प्रशंसा करना तो दूर रहा, परन्तु बात तक नहीं की। आने पर पानी तक के लिए नहीं पूछा। जिस कारण से वह मुनि अत्यन्त असूया की वजह से मूढ़ हो गया। अहो! धिक्कार है ऐसे कषाय को! जिसके वशीभूत होकर बहुश्रुत भी विपर्यास को प्राप्त होते हैं। जो अन्दर से मलिन होते हैं, वे अपने नजदीकी सेवक का भी निरादर करते हैं। जैसे कि अन्दर से मलिन लोचन पार्श्व में रही हुई मूंछों को भी नहीं देख पाते हैं।
इस प्रकार गुरु द्वारा सत्कार नहीं किये जाने पर बन्धुदत्त का अध्ययन में आदर कम हो गया। उसने अभ्यास, पठन आदि का त्याग कर दिया। इस प्रकार बिना अभ्यास के वह जड़मति हो गया। जैसे नये उपवन का सिंचन नहीं किये जाने पर वह पत्र, पुष्प, फलों आदि से रहित हो जाता है, वैसे ही बन्धुदत्त मुनि भी ज्ञान आदि क्रियाओं में शिथिल हो गये।
उधर साकेतपुर नगर में दया रहित, कृपण, क्रूर, सर्प के अनुज के