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धन्य-चरित्र/54 होते हुए पुनः अंकुर आदि भाव से उगते हुए देखे जाते हैं और उनमें यह वही है-इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान होता है, वह ज्ञान विसंवादी होता है। जैसे कि देखा गया है, वैसे स्तम्भ, कुम्भ, जल, कमल, सभा, राजा, भवन आदि में अन्यथा-असिद्ध ही होता है-इस प्रकार का प्रत्यभिज्ञान इष्ट होता है, ना कि पूर्व अनुभूत सत्ता का ग्राहक होता है।"
इस प्रकार के उत्तराभास को सुनकर पुनः बन्धुदत्त मुनि ने कहा-"हे प्रतिवादी! जैसे प्रत्यक्ष-दृष्ट जल मृगतृष्णा होता है, वैसे ही प्रत्यक्ष घट आदि भी मिथ्या कैसे नहीं हो सकते? और इस प्रकार सम्पूर्ण प्रत्यक्ष पदार्थों में अप्रमाणता के प्रसंग से तुम्हारा अनुमान भी प्रमाण के योग्य नहीं है, क्योंकि वह अनुमान भी प्रत्यक्ष-पूर्वक ही होता है और प्रत्यक्ष तो तुम्हारे द्वारा असत् रूप से परिकल्पित है। और भी, पदार्थ के एकान्त रूप से क्षण–विनाशी होने पर कोई भी मातृ-घाती नहीं होगा, क्योंकि जिस माता से वह पैदा हुआ, वह तो उसी समय विनष्ट हो गयी और जिस का घात किया, वह तो आपके मत से कोई दूसरी ही है। इसी प्रकार स्त्रियों के लिए कोई भी अपना पति नहीं होगा, पुरुष की कोई भी पत्नी नहीं होगी। जब स्त्री-पुरुष का विवाह हुआ, तो वे तो उसी समय विनष्ट हो गये। इस प्रकार होने पर कोई भी स्त्री पतिव्रता नहीं होगी, क्योंकि जिस पुरुष के साथ पाणिग्रहण हुआ, वह तो उसी समय नष्ट हो गया।
इसी प्रकार व्रत-ग्राहक कोई ओर होगा तथा व्रत-पालक कोई और। फिर व्रत-विराधक भी कोई नहीं होगा, क्योंकि व्रत को ग्रहण करनेवाला तो उसी समय में नष्ट हो गया। उत्तर-काल में तो कोई अन्य ही होगा और उस अन्य ने तो प्रतिज्ञा की ही नहीं, तो फिर विराधना का पाप कैसे लगेगा?
हे वादी! तुम्हारे मत में तो एक के द्वारा धरोहर रखी जाती है, और दूसरे के द्वारा माँगी जाती है। अर्पक तो नष्ट हो गया। उस धरोहर का ग्राहक तो कोई और ही होगा। धन भी नष्ट हो गया। तब कौन देगा और किससे माँगेगा?
और भी, भोजन की याचना किसी अन्य द्वारा की जायेगी और खायेगा कोई और ही। अत याचक कोई अन्य होगा, भोक्ता कोई अन्य होगा तथा तृप्त कोई अन्य होगा। इस प्रकार तुम्हारे मत में सारी व्यवस्था का ही लोप हो जायेगा। इसलिए हे भद्र! भद्रकारी जैन शासन की सेवा करो!"
__ इस प्रकार बन्धुदत्त मुनि ने न्याय की वाणी से प्रतिवादियों को जीतकर जयश्री प्राप्त की। सम्पूर्ण नगर में जैनियों की जीत हुई-यह उद्घोषणा फैल गयी। राजा ने बन्धुदत्त मुनि को अत्यधिक सम्मान दिया। राजा को धर्म-रुचि