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धन्य-चरित्र/69 दीसई विविहचरिअं, जाणिज्जइ सज्जण-दुज्जण विसेसो।
अप्पाणं च कलिज्जइ, हिंडिज्जइ तेण पुहवीए।।
देशाटन करने से विविध चारित्र दिखायी देते हैं, सज्जन व दुर्जन की पहचान होती है, आत्मा दक्ष होती है। अतः पृथ्वी पर घूमना चाहिए।"
___ अपनी कलाओं में कौशल की, भाग्य की, बल की, स्थिरता की व बुद्धि-वैभव की-इन पाँच बातों की देश भ्रमण रूपी कसौटी पर परीक्षा होती है। वे मनुष्य धन्य हैं, जो मनो–विनोदकारी, निधानों की तरह कौतुकों को पग-पग पर देखते हैं। धर्म शास्त्रों में भी कहा है, कि संक्लेशकारी स्थान का दूर से ही परित्याग करना चाहिए। नीति-शास्त्रों में भी कहा गया है
गजं हस्तसहसेण, शतहस्तेन वाजिनम् ।
शृङ्गिणं दशहस्तेन, देश-त्यागेन दुर्जनम् ।। अर्थात् हाथी का हजार हाथ दूर से, घोड़े का सौ हाथ दूर से, बैल का दस हाथ दूर से तथा दुर्जन के लिए देश का परित्याग कर देना चाहिए।"
इत्यादि मन में विचार करके धनसार का पुत्र धन्य नये-नये देशों के अवलोकन की क्रीड़ा के लिए अपने घर रूपी नीड़ से उन्मुक्त पक्षी की तरह उड़ गया।
उसी रात्रि में समस्त नागरिकों के सो जाने पर धन्य एकाकी ही घर से निकल गया। नमस्कार मंत्र का स्मरण करता हुआ मालव देश की ओर प्रस्थित हुआ। स्त्रियों की क्रीड़ा के क्रियापद रूप मालव जनपद की ओर चलते हुए अनेक गाँव, नगर, जनपद, वन आदि को देखते हुए एक दिन मध्याह्न के समय उसे बहुत तेज भूख का अनुभव हुआ।
उसी समय मार्ग में स्थित एक खेत को देखा। उस खेत के समीप वट-वृक्ष के नीचे भूख से बाधित होते हुए कुछ क्षणों के लिए विश्राम करने के लिए बैठा। उसी खेत में कोई किसान खेत जोत रहा था। इतने में उस किसान की पत्नी कोई पर्व दिन होने से चावल-दाल-घी से युक्त लापसी आदि मिष्ठान्न युक्त भोजन लेकर आयी। तब किसान ने सुन्दर आकृति तथा क्षुधा-ताप आदि से म्लान मुख वाले धन्यकुमार को देखकर विचार किया-"अहो! यह सुन्दर आकृतिवाला कोई सत्पुरुष ताप आदि से पीड़ित होकर यहाँ पर वृक्ष के नीचे विश्रान्त दिखाई पड़ रहा है। अतः उसे भोजन के लिए आमंत्रित करता हूँ।"
यह विचार कर धन्य के समीप आकर आदर सहित भोजन के लिए निमंत्रित किया। धन्य ने भी उसका कहा हुआ सुनकर साहसपूर्वक कहा-"हे चिन्तज्ञ-शिरोमणि! मैं अपनी भुजा से अर्जित भोजन करता हूँ। क्योंकि