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धन्य-चरित्र/72 की क्रिया करके, चौरासी लाख जीवायोनि में रहे हुए जीवों से क्षमा याचना करके, अट्ठारह पापस्थान का त्याग करके, चार शरण रूप शुभ भावना को भाते हुए, निद्रा के वशीभूत होता हुआ सो गया।
प्रहर रात्रि बाकी रहने पर वह पुनः उठ गया। नवकार का स्मरण करते हुए उसने आँखें खोली, क्योंकि
उत्तमानां निद्रा-ऽऽहार-कलह-क्रोध-कामा एते पञ्चापि दोषा प्रबला न भवन्ति ।
इस प्रकार के उत्तम व्यक्तियों के निद्रा, आहार, कलह, क्रोध व काम-ये पाँचों ही दोष प्रबल नहीं होते, बल्कि मंद ही होते हैं।
उसी समय धन्य ने शुभ-सूचक किसी सियाल के शब्द को सुना, क्योंकि पुण्यवान व्यक्ति के प्रायः निमित्त भी शुभ व सानुकूल मिलते हैं। धन्य ने उस स्वर को सुनकर पूर्व में अभ्यासित शकुन शास्त्र का विचार करके निर्धारित किया कि दिन में दुर्गा शकुन फल और रात्रि में शिवा शकुन फल निष्फल नहीं होते। अतः सूक्ष्म बुद्धि से फल का विचार करने लगा, तभी शिवा इस प्रकार से बोला-"कोई धीर पुरुष इस नदी के प्रवाह से शव निकालेगा, उसके कटि-स्थान से रत्न ग्रहण करेगा और शव मुझे खाने के लिए देगा, तो अति भव्य होगा।"
इस प्रकार से शिवा के शब्दार्थ का विचार करके धन्य उस स्थान से उठा और शिवा के कथनानुसार नदी के तट पर गया, क्योंकि
धनार्थी भोजनार्थी कौतुकी चालसो न भवति।
अर्थात् धन चाहनेवाला, भोजन चाहनेवाला और कौतुकी आलसी नहीं होते। जब धन्य ने नदी के किनारे देखा, तो स्वकृत पुण्य से आकृष्ट की तरह स्वयमेव जल-प्रवाह में तैरता हुआ नदी के तट पर आता हुआ एक मृतक देखा। तब जल-प्रवाह से उसे निकालकर उसकी कटि में रहे हुए रत्न लेकर उस मृतक को शिवा को दे दिया, जिससे शकुन का अर्चन शुभ के लिए हो। पुनः शयन स्थान पर आकर देव-गुरु के स्तवन से शेष रात्रि का अतिक्रमण करके प्रभात होने पर आगे बढ़ गया। क्रमपूर्वक सफल बुद्धिवाला वह धन्य दुर्गम संसार की तरह विन्ध्य पर्वत को लांघकर सुखपूर्वक मुनीन्द्र की निवृत्ति की तरह उज्जयिनी को प्राप्त हुआ।
वहाँ प्रद्योतित प्रतापवाला प्रद्योत नामक राजा राज्य करता था। वह चौदह महाराजाओं का स्वामी था। जिसके खड्ग हाथ में लेते ही अरि-वर्ग काँपने लगता था। वह राजा अपने राज्य की चिंता करनेवाले तथा बुद्धि से अभयकुमार के सदृश अमात्य की खोज में था। अपनी नगरी में बुद्धिमानी की