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धन्य - चरित्र / 70
सिंहाः सत्पुरुषाश्च क्षुधिता अपि परोपार्जितं भक्ष्यं न भुञ्जन्ति ।
सिंह और सत्पुरुष भूखे होने पर भी पर द्वारा उपार्जित भक्ष्य नहीं भोगते हैं। अतः शिष्ट-सिद्धान्त की परिपालना के लिए यदि तुम्हारी आज्ञा हो, तो कुछ क्षणों तक हल चलाकर खेत जोत लूँ, फिर मैं अमृत का भोजन करूँगा। कहा भी है
गुरु- वंशस्य स्वभुजार्जिता भुक्तिः गौरवं - महत्त्वं दत्ते । उच्च वंशवालों द्वारा स्व भुजा द्वारा अर्जित भोजन ही उन्हें गौरव - को देता है ।"
- महत्त्व
इस प्रकार धन्य की उक्ति को सुनकर उस किसान ने आज्ञा दे दी - "हे सज्जन! जैसी आपकी इच्छा हो, वैसा करके भोजन कीजिए ।"
इस प्रकार किसान की आज्ञा लेकर, स्वयं ही उठकर हल ग्रहणकर जोतना प्रारम्भ कर दिया, तभी हल खन की आवाज के साथ स्खलित हुआ । तब धन्य ने अपने भुजबल से हल को खींचते हुए भूमिगत शिला को तोड़कर भूमिगृह में रहे हुए अपरिमित द्रव्य - संख्या रूप निधान को प्रकट किया। भाग्यवालों को सर्वत्र ही अनीप्सित भी संपदा प्रकट होती है। कहा भी हैनिरीहस्य निधानानि प्रकाशयति काश्यपि ।
बालकस्य निजाङ्गानि न गोपयति कामिनी । ।
अर्थात् पृथ्वी भी निरीह लोगों को निधान प्रकाशित करती है । कामिनी बालक से अपने अंगों को नहीं छिपाती ।
स्वर्ण से परिपूरित निधि देखकर उदार - चित्तवाले धन्य ने वह कृषक को समर्पित कर दी। जिस प्रकार सम्यग् ज्ञानवाले योगियों को क्या अज्ञेय रहता है? उसी प्रकार उदार चित्तवाले सत्पुरुषों के लिए क्या अदेय रहता है?
तब किसान ने कहा - " हे सज्जन शिरोमणि! तुम्हारी भाग्य - निधि के हेतुभूत यह अमर्यादित खजाना प्रकट हुआ है । अतः इसे तुम्ही ग्रहण करो। " तब धन्य ने कहा-" हे भाई! मेरे पराया धन ग्रहण करने की बाधा है । भूमि तुम्हारी है, अतः यह धन भी तुम्हारा है। तुम्हे जो अच्छा लगे, वह करो। " तब अत्यधिक विस्मय तथा भक्ति से युक्त किसान ने कहा - " हे महाभाग ! तुमने अनर्गल धन देकर मेरी गरीबी का उच्छेद कर दिया है। अब तो भोजन करो।"
तब अत्याग्रह करने पर धन्य ने किसान द्वारा लाया गया भोजन किया, फिर कृषक से पूछकर आगे चला गया। क्योंकि
विश्वोपकारकारकाः सज्जनाः सूर्यवद् नैकत्रस्था भवन्ति ।