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धन्य-चरित्र/58 हुए भी यथार्थ श्लाघा न किये जाने से हतोत्साही होकर अपने-अपने गुणों में शिथिलता को प्राप्त हुए। तब रण में अप्रशंसित सैनिकों के सैन्य की तरह समग्र साधु-परिवार ही दु:खत हुआ। टूटी हुई पालवाला तालाब क्या नहीं सूखता?
तब वह रुद्राचार्य गुणी-जनों के द्वेष से उत्पन्न किल्विषित्व से, उस पाप की आलोचना किये बिना ही मरकर किल्विषी देव के रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ चाण्डाल तुल्य होने से उसके लिए देव-सभा में प्रवेश तक वर्जनीय था। चिरकाल तक देवों में जातिहीनता से तिरस्कार के दुःख को भोगकर वहाँ से च्युत होकर ब्राह्मण के घर में जन्म से ही मूक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। पूर्वकृत कर्मोदय से रोग से आक्रान्त व दरिद्री तथा अनेक दुःखों से अभिभूत होकर मरकर अनेक भवों में चिरकाल तक भ्रमण किया।
यदि इस प्रकार से आगम तत्त्व को जाननेवाले समस्त श्रुत के वेत्ता आचार्य-गुण के धारी भी रुद्राचार्य एकमात्र ईर्ष्या के कारण घोर दुःख को प्राप्त हुए, तो धमधमाते हुए आग के: गोलक के समान ईर्ष्या से जलते हुए मनुष्य का तो कहना ही क्या?
इस प्रकार कथा कहकर पुत्रों से धनसार कहने लगा-“हे पुत्रों! सम्यक प्रकार से विचार कर गुणरागी बनो।"
इस प्रकार के पिता के वचनों को सुनकर वे तीनों भाई अन्दर से ईर्ष्या-सहित, पर बाहर से भस्म से आच्छादित अग्नि की तरह कितने ही दिनों तक मौन को धारण करके रहे। वह धनसार श्रेष्ठी धन्यकुमार के पुण्य से छियासठ करोड़ द्रव्य का नायक हुआ। पृथ्वी पर लोगों की दुरावस्था को तोड़ने के लिए धनद के समान उसने अवतार लिया।
इस प्रकार गुणियों पर रुद्र मुनि के द्वारा की गयी अत्यधिक उपद्रवकारिणी द्वेष-भावना को जानकर तथा धन्यकुमार के समान सकल इच्छित को पूरा करनेवाली कामधेनु रूप गुणरागिता को सुनकर जो यहाँ इस भव में श्रेयस्कारी हो, बुधजन उसी का आश्रय करें, जिससे अविघ्न रूप से संसार से तिरा जा सके।
।। इस प्रकार श्री तपागच्छाधिराज श्री सोमसुन्दर सूरि के पट्ट प्रभाकर शिष्य श्री जिनकीर्ति सूरि द्वारा रचित पद्यबंध धन्य चरित्रवाले श्री दानकल्पद्रुम का महोपाध्याय श्री धर्मसागर गणि के अन्वय में महोपाध्याय श्री ज्ञानसागर गणि शिष्य की अल्प मति द्वारा ग्रथित गद्य-रचना-प्रबंध में षट्षष्टि-कोटि द्रव्यार्जन नामक तृतीय पल्लव पूर्ण हुआ।।