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धन्य-चरित्र/40 ___ हीनपुण्यस्य कोपः स्वघाताय जायते। अर्थात् हीन पुण्यवाले का क्रोध अपने घात के लिए ही होता है।
हिताकांक्षिणी पुत्रों आदि के द्वारा समझाये जाने पर भी वह ईर्ष्या से विरत नहीं हुआ। अहो! धिक्कार है, इस जड़ चित्त को, जो निष्कारण हठ का वहन करता है। अपना उपघात होने पर भी उसका त्याग नहीं करता।
तब एक दिन उसके पुत्रों ने कहा-“हे तात! आपका अब निर्जन वन में रहना ही ठीक होगा, जहाँ पर ईर्ष्या लवमात्र भी उत्पन्न नहीं होगी। इसलिए यदि आपके चित्त की प्रसन्नता हो, तो हम वन के एकान्त स्थान में आपके लिए एक कुटिया बनाकर आपके वहाँ रहने की व्यवस्था कर देवें।" पुत्रों के वचन सुनकर कुम्भकार ने भी सहर्ष स्वीकार कर लिया, क्योंकि उत्तर-काल में हित को कौन नहीं मानता?
तब पुत्रों ने किसी विजन में सरोवर के तट पर जंगली जानवरों से बचने के लिए ऊँची जगह पर कुटिया बनाकर भोजन, आच्छादन आदि सामग्री से पूर्ण करके अपने पिता को वहाँ पर स्थापित कर दिया। शास्त्रों में माता-पिता का उपकार दुष्प्रतिकार्य कहा गया है। फिर भी उन पुत्रों ने यह कार्य करके अपने प्रति अपने पिता के उपकार को कुछ कम करने की कोशिश की। वह कुम्भकार भी वन में उपसर्ग-रहित सुखपूर्वक रहने लगा। वहाँ ईर्ष्या को प्रेरित करनेवाला कोई नहीं था। इस कारण से स्वेच्छापूर्वक सुख से समय व्यतीत करने लगा।
एक बार उसी नगर का शिकार-व्यसनी राजा बहुत से सैन्य परिवार के साथ नगर के बाहर गहन वन में शिकार खेलने के लिए आया। वहाँ एक मृग-समूह को देखकर मारने के लिए घोड़ा दौड़ाया। दौड़ते हुए अश्व को देखकर मृग-यूथ भाग गया। राजा ने भी उस यूथ के पीछे भागते हुए बहुत सारा जंगल पार कर लिया। वह यूथ तो मानो अदृश्य होकर किसी पर्वत, गुफा आदि में छिप गया। लक्ष्य-मूढ़ राजा जंगल में दिशा-विहीन होकर इधर-उधर भटकने लगा। घूमते-घूमते सूर्य की किरणों के ताप से पीड़ित होते हुए तथा क्षुधा व तृषा से व्याकुल राजा किसी भी तरह से उस कुम्भकार की कुटिया के समीप पहुँचा। एक सघन वृक्ष के नीचे विश्राम करने बैठ गया।
पंकप्रिय ने देखा, तो अपने राजा को पहचान लिया। अपनी कुटिया में रहे हुए जलपात्र में स्थित गुलाब से सुवासित, स्वादिष्ट एवं सज्जनों के चित्त की तरह स्वच्छ-शीतल जल पिलाया। राजा भी बर्फ जैसा शीतल जल पीकर अत्यधिक सुस्थित हो गया। फिर पंकप्रिय ने यथा-सम्भव रसोई बनाकर विधिवत्