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धन्य-चरित्र/50 से घर भरा गया, कीर्ति से तीन जगत भरा गया। मित्रजन हर्ष से भर गये तथा सहोदर ईर्ष्या से भर गये।
___ इस प्रकार स्तुति करते हुए लोग उगते हुए सूर्य की तरह धन्य को बहुत ही मानने लगे, किन्तु अन्धकारमय प्रकृतिवाले धुवड़ की तरह उसके अग्रज उसे नहीं मानते थे। समस्त स्वजनों से धन्य का वर्णन सुनकर तीनों ही अग्रज ईर्ष्या से जलते थे।
तब असूया करनेवाले पुत्रों को पुनः धनसार श्रेष्ठी ने अनुशासित किया, मधुर वाणी द्वारा उपदेश दिया-"हे पुत्रों! मत्सर भाव से रहित बनो। गुण ग्राह्यता को भजो, क्योंकि
__ पङ्कजान्यपि धार्यन्ते गुणादानाज्जनैर्हदि।
राजाऽपि पद्मसादगुणद्वेषी न क्षीयते कथम्? ||
अर्थात् कीचड़ से उत्पन्न होने पर कमल गुण-आदान से लोगों द्वारा हृदय में धारण किये जाते हैं तथा ग्रहों का राजा चन्द्रमा भी पद्म के गुणों से द्वेष करने के कारण क्षय को प्राप्त होता ही है। जो मनुष्य गुणवानों के गुणों की ईर्ष्या-दोष से प्रशंसा नहीं करते, वे क्षुद्र नर रुद्राचार्य की तरह परभव में अति दुखित होते हैं। रुद्राचार्य की कथा इस प्रकार हैं
रुद्राचार्य-कथा किसी देश में पूर्वकाल में बहुत सारे गुण-समूहों से अलंकृत शरीरवाले बहुश्रुत, बहु परिवार युक्त, पंचाचार पालन में तत्पर रुद्र नामक आचार्य हुए। उनके गच्छ में विदित कीर्तिवाले चार साधु हुए। वे दानादि के मूर्तिमान रूप अति उज्ज्वल धर्म-भेदों की तरह शोभित होते थे।
__उन चारों में प्रथम बन्धुदत्त नामक मुनि वाद-लब्धि से युक्त थे। वे सभी स्व–पर तीर्थिक तर्क-ग्रन्थों के वेत्ता थे। अत्यधिक विकट, उत्कट तर्क-कर्कश युक्तियों द्वारा सभी वादियों को पराजित कर देते थे। वे पण्डित लोगों से इस प्रकार कल्पना किये जाते थे-जिन मुनि के द्वारा वाद में जीतने पर भी अत्यन्त लघुता को प्राप्त गुरु शुक्राचार्य तूल की तरह गणना में घूमते हैं।
जो मुनि गद्य रचना तथा पद्य रचना में क्रमशः दोष रहित भूषणों से युक्त एवं कवित्व-शक्ति से युक्त थे। ओष्ठ से रहित तथा दाँत से रहित उच्चारित होनेवाले शब्दों के वाद आदि में वर्गादि नियम से युक्त अत्यधिक, स्व-पक्ष-मण्डन से युक्त वाद को रचते हुए, जो एक वर्ष तक भी लगातार इस प्रकार का वाद करते हुए हारते नहीं थे। इस प्रकार के प्रथम बन्धुदत्त मुनि थे।
दूसरे प्रभाकर नाम के मुनि थे, जो अर्हत् शासन रूपी कमल के विकास