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धन्य-चरित्र/35 हूँ। उसमें प्रथम तो मायावी की तरह माया से लोगों के मन को अनुरक्त करता है तथा दूसरा पटु-चाटु वचनों द्वारा वणीपक की तरह मायापूर्वक स्व.-दोष-कथन आदि रंक-कला करके सुखपूर्वक सदा उदर की पूर्ति करता है और साधुत्व तो अन्य की स्तुति से प्रकट करता है। परन्तु दोनों ही दम्भ के समुद्र हैं।
हे कल्याणी! मैं तो दम्भ के संरम्भ से वर्जित हूँ। माया रहित हूँ। जैसे भी अन्न-पान आदि का लाभ हो, तो ग्रहण कर लेता हूँ, लेकिन प्रतिक्षण, प्रतिद्रव्य में दोष-प्रच्छन्नता आदि कपट-कदाग्रहकारी नहीं हूँ। सरल स्वभाव से प्रवृत्ति करता हूँ।
हे भद्रे! पहले मेरे द्वारा भी इस प्रकार की जन-रंजन-कारिणी माया शोभा के लिए बहुत सारी तथा बहुत बार की गयी। भद्र-जनों को छलकर उत्कर्षपूर्वक और पोषित करके खाया गया। इसी कारण से इन दोनों का छल मैंने जान लिया है। मैंने तो इसमें कोई सार नहीं देखा, अतः मैंने तो इसका त्याग कर दिया है एवं सरलता स्वीकार कर ली है।" यह कहकर वह पार्श्वस्थ लिंगी चला गया।
तब क्रोधित होती हुई वह उपासिका विचार करने लगी-“अहो! यह ईर्ष्यालु लिंगी किस प्रकार का असम्बद्ध वचन प्रलाप करता है। मात्सर्य-त्याग रहित बुद्धिवाले के कांजिक कुथित वचन सुनने के लिए अयोग्य है। एक इसकी निर्गुणता जगत में नही समाती। अहो! इसमें बिना कारण ही ईर्ष्यालुता दिखाई देती है।
प्रथम मुनि तो गुणियों में अग्रणी, समस्त गुण-रत्नों के भण्डार थे। दूसरे मुनि गुणानुरागी, गुणियों के गुण-वर्णन में शतमुख थे। बिना किसी शंका के स्व-दोष प्रकटन में पटु थे। अतः लोक में दोनों ही मुनि शुभाशयवाले होने से इन दोनों को पूज्यतम जानना चाहिए। तीसरे मुनि तो पापी, दोष-व्यापी, गुणों में मत्सर-भाव रखनेवाले होने से उनका मुख देखना भी योग्य नहीं है। वे पूजा आदि के भी योग्य नहीं है।"
जिस प्रकार उस श्राविका द्वारा निर्गुण भी गुणरागी तथा गुणी मुनियों को पूजा गया तथा नित्य मत्सरी-लिंगी मुनि का दूर से ही त्याग किया गया। उसी प्रकार हे पुत्रों! मात्सर्य दोष को छोड़कर साधुवाद रूपी कल्पलता-गुणरागता को स्वीकार करो।" इस प्रकार गुणों के अनुराग को सम्बोधित करनेवाली, धनसार की सुन्दर वाणी को सुनकर तीनों भाइयों के सिवाय शेष सभी स्वजनों ने प्रमोद भाव को धारण किया।
।। इस प्रकार तपागच्छाधिराज श्री सोमसूरि पट्ट के प्रभाकर-शिष्य श्री