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धन्य-चरित्र/33 तेजहीन होते हुए भी जो व्यक्ति गुणानुरागी होता है, वह भी पूज्य हो जाता है। गुण के राग व द्वेष पर एक यामल मुनि का दृष्टांत है, वह सुनोगुण के राग व द्वेष-विषयक पार्श्वस्थ मुनि यामल का दृष्टांत
बहुत समय पहले कोई एक इन्द्रिय चपलता को गुप्त करनेवाले, तप से कृश शरीरवाले ज्ञान रूपी समुद्र को पार पाये हुए, भव-भीति से उद्भूत मुनि हुए। एक दिन गोचरी चर्या में भिक्षा के लिए नगर में घूमते हुए ईर्या समिति से युक्त मानसवाले, नित्य अप्रमत्त वे मुनि किसी स्त्री के घर पर गये। स्त्री के हावभाव, विभ्रम, कटाक्ष आदि विलासों को देखकर भी अक्षुब्धमना होकर कछुए की तरह इन्द्रियों को गोपित करते हुए घर में प्रविष्ट होते हुए, कषाय रूप शत्रुओं का घर्षण किये हुए महर्षि जगत पर कल्प-वृक्ष के समान 'धर्मलाभ' इस प्रकार वाणी को फैलाते हुए उचित देश में स्थित हुए। तब घर के मध्य रही हुई युवती उन ऋषिराज को आया हुआ देखकर धर्म-स्पृहावाली बुद्धि का निर्माण करती हुई भिक्षा को हाथों में लेकर जब बाहर आयी, तब तक तो वे मुनि भिक्षा को लिए बिना ही अन्यत्र चले गये।
तब वह श्राविका भिक्षा लिए बिना ही मुनि को गया हुआ देखकर हताश होती हुई अपने भाग्य की निंदा करती हुई खेद करने लगी।
तभी क्षणान्तर में ही भाग्य योग से गुण-रंजित वेषमात्र धारी साधु आये। पुनः उस श्राविका ने उन्हें आया हुआ देखकर भिक्षा-द्रव्य हाथों में लाकर मुनि को निमंत्रित किया। मुनि ने भी उस भिक्षा को स्वीकार किया।
___ तब उस श्राविका ने प्रथम व द्वितीय मुनि में परस्पर अन्तर देखकर इस प्रकार कहा-“हे ऋषि! यदि आप क्रुद्ध न हों, तो कोई प्रश्न पूछना चाहती हूँ।"
तब वेषमात्र धारी मुनि ने वाणी से कहा - "हे कल्याणी! हे स्वच्छमते! जो इच्छा हो, पूछो। मैं तो रोष रूपी दोष का शोषक हूँ। किसी के भी क्रोधोत्पादक वचन सुनकर रोष नहीं करता हूँ।"
तब उस श्राविका ने कहा-"आपसे पहले आप जैसे ही एक साधु आये थे। वह मेरे द्वारा दी जानेवाली भिक्षा को देखते ही लौट गये। पुनः क्षण भर बाद ही आप आये और आपने वह भिक्षा ग्रहण कर ली। इसमें आप दोनों की विषमता का क्या कारण है?"
श्राविका के इस प्रकार कहने पर उन वेषमात्र - धारी साधु ने कहा-"हे कल्याणी! वे मुनि प्राणी-रक्षा में परायण महात्मा तथा नौ ब्रह्मगुप्ति से युक्त हैं। वे ममत्व रहित मुनि इस धर्म शरीर की यात्रा-मात्र के लिए रूक्ष भिक्षा का आहार करते है। अन्त आहार, प्रान्त आहार, तुच्छ आहार उंछ-वृत्ति से आया हुआ हो