________________
धन्य - चरित्र / 34 तथा इंगाल, धूम आदि दोषों से रहित हो, तो ही ग्रहण करते हैं। न तो अति स्निग्ध आहार ग्रहण करते हैं, न अति मधुर आदि ।
हे भद्रे ! नीचे द्वार से युक्त होने से तथा अंधकार से युक्त तुम्हारे गहन घर में चक्षु का विषय न होने से उन कृपालु मुनि ने भिक्षा ग्रहण नहीं की और वापस लौट गये।
अब तुम्हें शंका होगी कि मैंने कैसे ग्रहण किया? तो हे भद्रे ! सुनो। मैं वेष-मात्र उपजीवी होने से साधु का आभास - मात्र हूँ, लेकिन वास्तविक नहीं हूँ । हे कल्याणी ! पूर्व में आये हुए साधु के धैर्य की तो क्या बात! जो प्राणांत होने पर भी कामना - रहित होते हैं। ऐसे गुणवान के सामने हीन - सत्त्ववाला देह का लालन करने की लालसा से युक्त मेरा कद कितना? मैं क्या हूँ ? शिकारी से हरण किये गये मृग के शत्रु के सामने शृगाल कितना - मात्र होता है? सूर्य मण्डल के आगे खद्योत का उद्योत कितना? वह तात्त्विक भाव युक्त मुनि सर्व गुण - रत्नों से विभूषित हैं। हे भद्रे ! मैं तो खेत में खड़े किये हुए तिनकों से बने हुए चंचा- पुरुष की तरह नाम - मात्र का धारक हूँ। वेष के आडम्बर से उदर - वृत्ति करता हूँ । अतः उनके व मेरे बीच तो बहुत अन्तर है ।"
उनके इस प्रकार कहने पर वह श्राविका विचार करने लगी- "अहो ! इन दोनों मितभागी मुनियों को धन्य है! एक गुण - रत्नों के रत्नाकर हैं, तो दूसरे गुणरागी हैं। अतः दोनों ही श्लाघनीय हैं। कहा भी है
नागुणी गुणिनं वेत्ति, गुणी गुणिषु मत्सरी । गुणी च गुणरागी च, सरलो विरलो जनः । ।
अगुणी गुणी को नहीं जानता, गुणी गुणियों में मत्सरी होता है । गुणीजन सरल व गुणरागी विरल ही होते हैं।
जगत में प्रमाद से मोहित लोग पग-पग पर स्व- स्तुति तथा पर- निंदा करते देखे जाते हैं, लेकिन पर स्तुति व स्व-निंदा करनेवाले कोई भी नहीं होते ।" इस प्रकार वह दोनों मुनियों के गुणों का अनुमोदन करती रही।
इसी अवसर पर कोई एक विगोपित व्रतवाले पार्श्वस्थ श्रमण भिक्षा के लिए आये। वे किस प्रकार के थे? गुणियों पर प्रबल द्वेषी, पर- छिद्रान्वेषी, ईर्ष्या से ज्वलित हृदयवाले वेष- मात्र उपजीविक थे। उन्हें आया हुआ देखकर उस श्राविका ने घर के अन्दर से अन्न आदि लाकर उस लिंगधारी को प्रतिलाभित किया ।
उसके बाद उसने पुनः पूर्व के समान घटना निवेदन कर पूछा । तब उस अधम श्रमण ने कहा- हे भद्रे ! वे दोनों ही महत्वाकांक्षी हैं। मैं दोनों को जानता