________________
जी का भव्य प्रतिमा के निर्माण का स्वप्निल विचार आया होगा । आचार्यश्री के अनुसार भगवान् श्री शांतिनाथ के पावन स्मरण से मुक्ति लक्ष्मी का द्वार सुलभ हो जाता है
__"अनादि से आत्मा के साथ लगे हुए कर्म वृक्ष को काट कर, मोह रूपी शत्रु का सामना करके अन्त में मोक्ष लक्ष्मीपति होकर सदा सुखी रहने की इच्छा है, तो मोक्ष लक्ष्मी के पति चतुर्मुख शांतिनाथ भगवान की पूजा करके मनुष्य जन्म को सार्थक करो।"
(धर्मामृत, पचम आश्वास, पद ६६ का अनुवाद)
आचार्यश्री की दृष्टि में श्रावकों को भी सांसारिक सुख-वैभव के लिए सम्यक् श्रद्धान सहित तीर्थकर भगवान् की धर्ममय शरण में जाना हितकर है। भारतीय इतिहास में किसी समय कलिंगपति एव मगधपति सत्ता एवं वैभव के प्रतीक थे। आचार्यश्री का कथन है कि तीर्थंकर भगवान् की भक्तिपूर्वक पूजा से मनोवांछित फल मिलते हैं और साधक को कलिंगपति एवं मगधपति से भी अधिक वैभव की प्राप्ति होती है
"हे भव्य जनो ! यदि तुम हमेशा सुवर्णमय या रत्नमय सिंहासन पर बैठकर अनेक प्रकार के भोग-विलास की इच्छा रखते हो, या कलिंगपति, मगधपति से भी बढ़कर वैभव की इच्छा करते हो, तो अनेक प्रकार के राजाओं और देवों से पूजनीय चतुर्मुख श्री शान्तिनाथ भगवान की भक्तिपूर्वक पूजा करो। अनेक प्रकार के दुःखों से मुक्ति चाहते हो, विविध प्रकार की अग्नि में डालकर दुःख देने वाले, नाना प्रकार के पशुओं द्वारा कष्ट देने वाले और आरे से चीर कर सताने वाले, निंद्य वचन कहने वाले, असह्य दुःख देने वाले नरक से बचना चाहते हो और देवों के सुख चाहते हो तो निवृत्ति-मार्ग ग्रहण करके पापों का नाश करने वाले मोक्ष लक्ष्मीपति चतुर्मुख शान्तिनाथ गवान् की स्तुति-पूजा करो।" (धर्मामृत, पंचम आश्वास, पद ६४ व ६८ का अनुवाद)
शांतिगिरि का शैल कोथली स्थित दिगम्बर जैन आश्रम से लगभग डेढ़ किलोमीटर के अन्तराल पर है। यह पर्वत समतल भूमि से लगभग १४५ फुट तक ऊँचा है । इस पहाड़ पर समतल भूमि के मध्य भगवान् श्री शान्तिनाथ की २१ फीट ऊंची, भगवान् श्री चन्द्रप्रभु एवं भगवान् श्री महावीर स्वामी की १६-१६ फीट ऊंची भव्य एवं मनोज्ञ प्रतिमाएँ स्थापित की गई हैं। जैनधर्म में मुनि एवं आचार्य को रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र के निर्दोष पालन के लिए सतर्क रहना पड़ता है। जैन तीर्थंकर परम्परा में श्री चन्द्रप्रभु, श्री शान्तिनाथ एवं श्री महावीर स्वामी जी क्रमशः ८, १६वें एवं २४व तीर्थंकर हैं। तीनों तीर्थकर रत्नत्रय आराधना के प्रतीक हैं। अत: आचार्य श्री देशभूषण जी ने रत्नत्रय की उज्ज्वलता के प्रतीक शांतिगिरि पर उपरोक्त तीनों तीर्थकरों की प्रतिमायें विशेष रूप से प्रतिष्ठित कराई हैं। इन तीनों प्रतिमाओं के निकट विदेह क्षेत्र में विद्यमान बीस विहरमान तीर्थंकरों-श्री सीमन्धर; श्री युगमन्धर, श्री बाहु, श्री सुबाहु, श्री संजात, श्री स्वयंप्रभ, श्री ऋषभानन, श्री अनन्तवीर्य, श्री सूरिप्रभ, श्री विशालप्रभ, श्री वज्रधर, श्री चन्द्रानन, श्री चन्द्रबाहु, श्री भुजंगम, श्री ईश्वर, श्री नेमिप्रभ, श्री वीरसेन, श्री महाभद्र, श्री देवयश, श्री अजितवीर्य की नयनाभिराम प्रतिमायें हैं।
आचार्य श्री देशभूषण जी को अष्टाह्निका पर्व में अर्थात् कार्तिक, फाल न व आषाढ़ मास के अन्तिम आठ-आठ दिनों में इन्द्रध्वज पाठ, सिद्धचक्र का पाठ एवं विशेष पूजा विधान कराने में आनन्द आता है। इसीलिए उन्होंने थावकों को प्रेरणा देकर शांतिगिरि पर नन्दीश्वर द्वीप-१६ वापियां और ४ अंजनगिरि, १६ दधिमुख एवौं ३२ रतिकर पर्वत (अर्थात् कुल ५२ पर्वत) का निर्माण करवाया है। नंदीश्वर द्वीप के प्रत्येक पर्वत पर एक-एक चैत्यालय है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार पर्वराज अष्टाह्निका के अवसर पर देवगण उस द्वीप पर जाकर मन्दिरों एवं चैत्यालयों के दर्शन करते हैं । आचार्य श्री की पावन प्रेरणा से कोथली में धर्माराधना के निमित्त पधारने वाले महानुभावों को भी नन्दीश्वर द्वीप का पूजन करके कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्यालयों में श्रद्धा का अर्ध्य अर्पित करने का अवसर मिल जाता है ।
आचार्य श्री देशभूषण जी द्वारा प्रेरित सतत् निर्माण की प्रक्रिया से पिछले तीन-चार वर्षों में शांतिगिरि पर्वत ने जैन देवकुल के प्रतिनिधि आलय का रूप ले लिया है। पर्वत पर तीर्थकर प्रतिमाओं के अतिरिक्त जैन धर्म के प्रभावक आचार्यों यथा श्री धरसेन, श्री पुष्पदन्त, श्री भूतवली, श्री कुन्दकुन्द, श्री समन्तभद्र, श्री अमृतचन्द्र इत्यादि की प्रस्तर प्रतिमायें स्थापित की गई हैं । एक पाषाण खंड पर सिद्धक्षेत्र श्री सम्मेदशिखर के दृश्यांकन को उत्कीर्ण कराया गया है । शांतिगिरि की गरिमा को गगनस्पर्शी रूप देने के लिए पर्वत शृंग
आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org