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पहला प्रकरण ।
मैं परिच्छिन्न हूँ, मेरे ये देहादिक हैं, मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, इस तरह के जो अन्तःकरण के धर्मों को अध्यास करके आत्मा में जीवों ने मान रक्खा है, उस अध्यास-रूपी भ्रम की निवृत्ति तो एक बार असंग आत्मा के उपदेश करने से नहीं होती है । इसी पर व्यास भगवान् ने सूत्र कहा है
"आवृत्तिरसकृदुपदेशात् ।"
ज्ञान की स्थिति के लिये श्रवण-मनन आदिकों की आवत्ति पुन:पुनः करे, क्योंकि उद्दालक ने अपने पुत्र के प्रति, नव बार 'तत्त्वमसि' महावाक्य का उपदेश किया है, बारंबार श्रवणादिकों के करने से चित्त की वत्ति विजातीय भावना का त्याग करके सजातीय भावनावाली होकर आत्माकार हो जाती है, इसी वास्ते जनकजी को पुन:-पूनः आत्म-ज्ञान का उपदेश अष्टावक्रजी करते हैं
मूलम् । कूटस्थं बोधमद्वैतमात्मानं परिभावय । आभासोऽहं भ्रमं मुक्त्वा भावं बाह्यमथान्तरम् ॥ १३ ॥
पदच्छेदः । कूटस्थम्, बोधम्, अद्वैतम्, आत्मानम्, परिभावय, आभासः, अहम्, भ्रमम्, मुक्त्वा , भावम्, बाह्यम्, अथ, अन्तरम् ।। शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ। अहम् =मैं
इति-ऐसे ..आभास-रूप अहंकारी भ्रमम्-भ्रम को आमासःजीव हूँ
अभ और
अन्वयः।