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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० (२) आत्मा विभु अर्थात् सर्व का अधिष्ठान है।
( ३ ) आत्मा एक है अर्थात् सजातीय और विजातीय स्वगत-भेद से रहित है।
(४) आत्मा मुक्त है अर्थात् माया और माया के कार्य देहादिकों से भी रहित है ।
( ५ ) आत्मा चित् है अर्थात् चैतन्य-स्वरूप है।
( ६ ) आत्मा अक्रिय है अर्थात चेष्टा से रहित है, क्योंकि परिच्छिन्न में चेष्टा अर्थात् क्रिया होती है, व्यापक में नहीं होती है।
(७) आत्मा असंग है अर्थात् सम्पूर्ण सम्बन्धों से रहित है।
(८) आत्मा निःस्पृह है अर्थात् विषयों की अभिलाषा से भी रहित है।
(९) आत्मा शान्त है अर्थात् प्रवृत्ति और निवृत्ति देहादि अन्त:करण के धर्मों से रहित है।
(१०) आत्मा केवल भ्रम के कारण संसारवाला भासित होता है । इन दस हेतुओं करके आत्मा वास्तव में संसारी नहीं हो सकता है।
"असंगो ह्ययं पुरुषः" । यह आत्मा असंग है। "न जायते म्रियते वा कदाचित"।
अर्थात् आत्मा वास्तव में न जन्म लेता है, न मरता है-यह गीता-वाक्य और अनेक श्रुति-वाक्य भी आत्मा की असंगता में प्रमाण हैं । इसी से नैयायिक आदि मिथ्यावादी सिद्ध होते हैं ।। १२ ।।