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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
मूलम्। आत्मा साक्षी विभुः पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रियः । असङ्गो निःस्पृहःशान्तो भ्रमात्संसारवानिव ॥१२॥
पदच्छेदः । आत्मा, साक्षी, विभुः, पूर्णः, एकः, मुक्तः, चित्, अक्रियः, असंगः, निस्पृहः, शान्तः, भ्रमात्, संसारवान्, इव ।। अन्वयः।
शब्दार्थ । | अन्वयः । __ शब्दार्थ । आत्मा-आत्मा
अक्रियः क्रिया-रहित है साक्षी साक्षी है
असंग: संग-रहित है विभुः व्यापक है
निःस्पृहः इच्छा-रहित है पूर्णः-पूर्ण है
शान्तः शान्त है एक: एक है
भ्रमात-भ्रम के कारण मुक्तः मुक्त है
संसारवान्-संसारवाला चित्-चैतन्य-रूप है
इव-भासता है __भावार्थ । हे जनक ! बन्ध और मोक्ष दोनों अवास्तविक हैं और केवल अपने स्वरूप की अज्ञानता से देहादिकों में अभिमान करके, जीव अपने को बन्धायमान करके, मुक्त होने की इच्छा करता है। वास्तव में न उसमें बन्ध है और न मोक्ष है। जीव-आत्मा है, एक है, पूर्ण है, मुक्त है, असंग है, निःस्पृह है और शान्त है। भ्रम करके संसारवाला भान होता है। वास्तव में, उसमें संसार तीनों कालों में नहीं है, इसमें एक दृष्टांत कहते हैं