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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : २ अभिप्राय था कि शब्दों के उद्भव और विकास की यह पहली सीढ़ी है। इन्हीं शब्दों से उत्तरोत्तर नये-नये शब्द बनते गये, भाषा विकसित होती गयी। इस सिद्धान्त के उद्भावकों में कंडिलक का नाम उल्लेखनीय है।
__ डा० भोलानाथ तिवारी ने इस सम्बन्ध में विचार करते हुए लिखा है : "इस सिद्धान्त के मान्य होने में कई कठिनाइयां हैं। पहली बात तो यह है कि भिन्न-भिन्न भाषाओं में ऐसे शब्द एक ही रूप में नहीं मिलते। यदि स्वभावतः आरम्भ में ये निःसृत हुए होते तो अवश्य ही सभी मनुष्यों में लगभग एक जैसे होते। संसार भर के कुत्ते दुःखी होने पर लगभग एक ही प्रकार भौंक कर रोते हैं, पर, संसार भर के आदमी न तो दुःखी होने पर एक प्रकार से 'हाय' करते हैं और न प्रसन्न होने पर एक प्रकार से 'वाह'। लगता है, इनके साथ संयोग से ही इस प्रकार के भाव सम्बद्ध हो गये हैं और ये पूर्णतः यादृच्छिक हैं। साथ ही इन शब्दों से पूरो भाषा पर प्रकाश नहीं पड़ता। किसी भाषा में इनकी संख्या चालीस-पचास से अधिक नहीं होगी । और वहां भी इन्हें पूर्णतः भाषा का अंग नहीं माना जा सकता। बेनफी ने यह ठीक ही कहा था कि ऐसे शब्द केवल वहां प्रयुक्त होते हैं, जहां बोलना सम्भव नहीं होता। इस प्रकार ये भाषा नहीं हैं। यदि इन्हें भाषा का अंग भी माना जाये तो अधिक-से-अधिक इतना कहा जा सकता है, कुछ थोड़े शब्दों की उत्पत्ति की समस्या पर ही इनसे प्रकाश पड़ता है।" ।
सूक्ष्मता से इस सिद्धान्त पर चिन्तन करने पर अनुमित होता है कि भाषा के एक अंश की पूर्ति में इसका कुछ-न-कुछ स्थान है ही। भाषा के सभी शब्द इन्हीं Interjectional ( विस्मयादिबोधक ) शब्दों से निःसृत हुए, इसे सम्भव नहीं माना जा सकता।
अंशतः इस सिद्धान्त का औचित्य प्रतीत होता है। वह इस प्रकार है-विभिन्न भावों के आवेश में आदि मानव ने उन्हें प्रकट करने के लिए जब जैसी बन पड़ीं, ध्वनियों उच्चारित की हों। भाषा का अस्तित्व न होने से भाव और बनि का कोई निश्चित द्योत्य-द्योतक सम्बन्ध नहीं था। एक ही भाव के लिए एक प्रदेशवासी मानवों के मुख से एक ही ध्वनि निकलती रही हो, यह सम्भव नहीं लगता। भाषा के बिना तब कोई व्यवस्थित सामाजिक जीवन नहीं था। इसलिए यह अतक्यं नहीं माना जा सकता कि एक ही भाव के लिए कई व्यक्तियों द्वारा कई ध्वनियां उच्चारित हुई हों। फिर ज्यों-ज्यों ध्वनियों या शब्दों का कुछ विकास हुआ, ध्वनियों की विभिन्नता या भेद अनुभूत होने लगा, तब सम्भवतः किसी एक भाष के लिए किसी एक शब्द का प्रयोग निश्चित हो गया हो।
डा० तिवारी पशुओं की बोलो को चर्चा करते हुए जो कहते हैं कि देशगत भेद उस १. भाषा विज्ञान, पृ० ३३
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