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आगम और विपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:२ अपेक्षा से अथवा उनके शासन के अन्तर्वती होने से वे औपचारिकतया तीर्थकर के शिष्य कहे भी जा सकते हैं; अतः प्रत्येक-बुद्धों द्वारा प्रकीर्णक-रचना की संगतता व्याहत नहीं होती।
সাদা সীথা
वर्तमान में जो मुख्य-मुख्य प्रकीर्णक संज्ञक कृतियां प्राप्त हैं, वे संख्या में दश हैं : १. चउसरण (चतुः शरण), २. आउर-पच्चक्खाण (आतुर-प्रत्याख्यान), ३. महापच्चक्खाण (महाप्रत्याख्यान), ४. भत्त-परिष्णा (भक्त-परिज्ञा), ५. तन्दुलवेयालिय (तन्दुल-वैचारिक), ६. संथारग (संस्तारक), ७. गच्छायार (गच्छाचार), ८. गणिविज्जा (गणि-विद्या), ९. देविंद-थय (देवेन्द्र - स्तव), १०. मरण-समाही (मरण-समाधि) ।
१. चउस रण (चतु : शरण) जैन परम्परा में अर्हत्, सिद्ध, साधु और जिन-प्ररूपित धर्म; ये चार शरण आश्रयभूत माने गये हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि जैन संस्कृति के ये आधार-स्तम्भ हैं । इन्हीं चार के आधार पर इस प्रकीर्णक का नाम चतुःशरण रखा गया है ।
- दुष्कृत त्याज्य है, सुकृत ग्राह्य; यह धर्म का सन्देश है। इस प्रकरण में दुष्कृतों को निन्दित बताया गया है और सुकृतों को प्रशान्त, जिसका आशय है कि मनुष्य को असत् कार्य न कर सत्कार्य करने में तत्पर रहना चाहिए। इसको कुशलानुबन्धी अध्ययन भी कहा जाता है, जिसका अभिप्राय है कि यह कुशल-सुकृत या पुण्य की अनुबद्धता का साधक है। इसे तीनों सन्ध्याओं में ध्यान किये जाने योग्य बताया गया है। इससे यह स्पष्ट है कि यह प्रकीर्णक विशेष उपादेय माना जाता रहा है। चतुःशरण की अन्तिम गाथा में वीरभद्र का नामोल्लेख है, जिससे अनुमान किया जाता है कि वे इसके रचयिता रहे हों। भुवनतुग द्वारा वृत्ति की रचना को गयी और गुणरत्न द्वारा अवचूरि की।
१. ."प्रत्येकबुद्धानां शिष्यभावो विरुद्ध यते, तदेतवसमीचीन, यतः प्रव्राजकाऽऽचार्यमेवाधि
कृत्य शिष्यभावो निषिध्यते, न तु तीर्थकरोपविष्टशासनप्रतिपन्नत्वेनापि, सतो न कश्चिद्दोषः।
-अभिधान राजेन्द्र, पंचम भाग, पृ०४
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