Book Title: Agam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Arhat Prakashan

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Page 658
________________ j ६०८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन i परीक्षा : सफलता आचार्य धरसेन ने उपर्युक्त रूप में निश्चय कर श्रुतार्थी मुनियों की इस प्रकार परीक्षा की — “उन्होंने उनको दो विद्याएं दीं। उनमें एक अधिकाक्षरा थी, दूसरी हीनाक्षरा । उन्होंने मुनियों से कहा- षष्ठ-भक्त-उपवास — बेला कर विद्याएं साधें । मुनियों ने विद्यानों की साधना की । विद्या की अधिष्ठात्री देवियां उनके समक्ष प्रकट हुईं। उनमें एक देवी के दान्त मुंह से बाहर निकले हुए थे और दूसरी एक आंख से कानी थी। मुनि विचारने लगेदेवताओं में ऐसा कैसे ? उनमें तो विकलांगता नहीं होती । दोनों मुनि मंत्र - विश्लेषण - शास्त्र में प्रवीरण थे । अत: उन्होंने हीनाक्षरा विद्या के मंत्रों से अपेक्षित अक्षर मिलाकर तथा अधिकाक्षरा विद्या के मंत्रों में से अनपेक्षित अधिक अक्षर हटाकर उनकी पुनः साधना की । साधना फलित हुई। दोनों विद्याओं की अधिष्ठात्री देवियां अपने स्वाभाविक सौभ्य रूप में उन्हें दिखाई दीं । मुनि आचार्थ धरसेन के पास आये, यथोचित विनयपूर्वक विद्याराधना सम्बन्धी वृत्तान्त उन्हें निवेदित किया । आचार्य बहुत परितुष्ट हुए और उन्हें शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र तथा शुभ वार में ग्रन्थ शास्त्र पढ़ाना आरम्भ किया । 1 Jain Education International 2010_05 खण्ड । २ परितुष्ट गुरु द्वारा विद्या-दान उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि आचार्यं धरसेन ने विद्या ग्रहरण हेतु समागत साधुओं को परीक्षा में सफल पाया । उन्हें विश्वास एवं परितोष हुआ कि वे दोनों सुयोग्य पात्र एवं समर्थ अधिकारी हैं । वे उन्हें सोत्साह विद्या देने लगे । विद्यादाता का हार्दिक अनुग्रह तथा विद्या गृहीता की तन्मयता, लगन एवं परिश्रम विद्या की यथावत् प्राप्ति में निःसन्देह असाधारण सहायक होते हैं । ऐसा ही हुआ । पुष्पदन्त और भूतबलि बड़ी निष्ठा, भक्ति तथा विनयपूर्वक विद्या ग्रहण करने लगे । प्राचार्य धरसेन ने, जो विशिष्ट श्रुत उन्हें आयत्त था, सहर्ष अपने शिष्यों को दिया । शिष्य विद्या निष्णात हो गये । For Private & Personal Use Only -- १. तदो ताणं तेण वो विज्जाओ दिण्णाओ । तत्थ एया अहियक्खरा अवरा वि होणक्खरा । एदाओ छठ्ठोववासेण साहेहु ति । तदो ते सिद्धविज्जा विज्जादेवताओ पेच्छंति, एया उद्दतुरिया अवरेया काणिया । ऐसो देवदाणं सहावो ण होदि त्ति चितिऊण मंतब्वायरण सस्थ - कुसलेह होणाहिय-क्खराणं छुहणाव-णयण-विहाणं काऊण पढतेहि वो वि देवदाओ सहाव- रूव-ट्ठियाओ दिट्ठाओ । पुणो तेहि धरसेण भयवंतस्स जहावित्तण विएण णिवेदिवे सुष्ठु तु टुण धरसेण-भडारएण सोम-तिहि णक्खत्त-वारे गंथो पारखो । -षट्खण्डागम, खण्ड १, भाग १, पुस्तक १, पृ० ७० www.jainelibrary.org

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