Book Title: Agam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Arhat Prakashan

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Page 696
________________ ६४६ ] आगम और fafपटक : एक अनुशीलन [२ उनसे प्रेम की याचना की। मुनि भी उस रूपवती कन्या पर आसक्त हो गये । त्यागी से भोगी बन गये । कुम्भकारी के साथ रहने लगे, बर्तन - भांड़े बनाने लगे । कहा जाता है, एक बार जैन संघ में किसी महत्वपूर्ण सैद्धान्तिक विषय पर मत भेद या विवाद उत्पन्न हो गया । कोई समाधान नहीं हो पाया । संधाधिपति ने सब और दृष्टि दौड़ाई तो यह माघनन्दि पर जाकर टिकी । माघनन्दि के वैदुष्य तथा सिद्धान्त-वेतृत्व के सम्बन्ध में वे जानते थे । उन्होंने मुनियों को प्रादेश दिया कि वे माघनन्दि के पास जायें, उनसे पूछें, वे समाधान कर सकेंगे। मुनि कुम्भकार के स्थान पर श्राये । माघनन्दि के समक्ष अपनी सैद्धान्तिक समस्या उपस्थित की और समाधान चाहा । माघनन्दि को बड़ा आश्चर्य हुआ, उन्होंने समागत मुनियों से कहा- अब भी संघ मुझे इतना सम्मान देता है ? मुनि बोले- आपके पास जो महत्वपूर्ण गम्भीर श्रुत ज्ञान है, वह सदा समादृत रहेगा । माघनन्दि को सहसा अपनी गरिमा का भान हुआ, भोगासक्तिवश जिसे वे भूल चुके थे । तत्क्षरण तुच्छ भोगों के प्रति उनके मन में ग्लानि का भाव उत्पन्न हुआ । उन्होंने तत्काल कुम्भकारी का साथ छोड़ दिया । अपना कमण्डलु और मयूरपिच्छ उठा लिया तथा प्रायश्चित्त कर पुन: मुनि संघ में सम्मिलित हो गये । माघनन्दि के कुम्भकार - जीवन की एक कहानी यों भी प्रचलित है— जब वे कच्चे घड़ों को पकाने के लिए उन पर भाप देते थे, तब सहजतया कवि हृदय होने के कारण कुछ गुनगुनाने लगते थे । उनकी गुनगुनाहट कविता के रूप में परिणत होती जाती थी । जैनसिद्धान्न भास्कर में 'ऐतिहासिक स्तुति' के शीर्षक से एक षोडश श्लोकात्मक- स्तुति प्रकाशित हुई थी, जो माघनन्दि द्वारा कुम्भकार - जीवन में रचित कही जाती है। वहां इस कथानक की भी चर्चा है । निर्णायक भाषा में तो नहीं कहा जा सकता, ये माघनन्दि कौन से थे; क्योंकि दिगम्बर-परम्परा में इस नाम के एकाधिक आचार्य हुए हैं, पर यहां वर्णित माघनन्दि के श्रुतवैशिष्ट्य तथा सिद्धान्तवेतृता से यही ध्वनित होता है कि वे सम्भवतः अर्हदुबलि के शिष्य माघनन्दि ही हों । श्रवणवेलगोला के एक शिलालेख में भी माघनन्दि का सिद्धान्तवेदी के रूप में उल्लेख है । 2 १. जैन सिद्धान्त भास्कर, सन् १९१३, अंक ४, पृ० १५१ २. नमो नम्रजनानन्वस्यन्विने माघनन्दिने । जगत्प्रसिद्ध सिद्धान्तवेदिने चित्प्रमोदिने ॥ ४ ॥ Jain Education International 2010_05 -श्रवणबेलगोला शिलालेख नं० १२९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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