Book Title: Agam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Arhat Prakashan

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Page 724
________________ ६७४ ] आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : २ में इससे भिक्षु और गृहस्थ, दोनों ही प्रकार के शिष्यों का बोध होता है ।। उपासक और श्रमणोपासक शब्द अनुयायी गृहस्थ के लिए दोनों परम्पराअो में प्रयुक्त हैं। आस्रव और संवर—ये दोनों शब्द भी जैन और बौद्ध दोनों परम्म्पराओं में एक ही अर्थ में मान्य दिखलाई पड़ते हैं।' ___ दीक्षित होने के अर्थ में एक वाक्य दोनों परम्पराओं में रूढ़ जैसा पाया जाता है। जैनागमों में है—आगाराओ अणगारियं पश्व इत्तए। बौद्ध शास्त्रों में है—अगारम्मा अनगारिअं पव्वजन्ति ।। सम्यकदृष्टि, मिथ्यादृष्टि—ये दोनों शब्द भी एक ही अर्थ में दोनों परम्पराओं में मिलते हैं । जैन और बौद्ध दोनों ही अपने-अपने अनुयायियों को सम्यक्दृष्टि और इतर मत वालों को मिथ्याष्टि कहते हैं । उपोपथ-इस शब्द का प्रयोग दोनों परम्पराओं में मिलता है । दीघनिकाय में भगवान् बुद्ध ने जैनों के उपोसथ की आलोचना की है। बैरभण-व्रत लेने के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग दोनों परम्पराओं में देखा जाता है। तथागत-मुख्यत: यह शब्द बौद्ध परम्परा का है। जैनागमों में यत्र-तत्र उपलब्ध होता है। उदाहरणार्थ कओ कआइ मेहावी उपज्जन्ति तहागया। तहागया उप्पडिक्कन्ता चक्खु लोगस्सनुत्तरा ॥ विनय-विनय शब्द का दोनों परम्पराओं में महत्व है । बौद्ध परम्परा में समग्न प्राचार-धर्म के विषय में ही विनय शब्द का प्रयोग है। विनयपिटक इसी बात का सूचक है । जैनागमों में भी अनेक अध्ययन विनय-प्रधान हैं । दशवकालिक सूत्र का नवम अध्ययन १. अंगुतर निकाय, एक कनियात, १४ २. जैनागम, समवायांग सूत्र, सं० ५, बौद्ध शास्त्र, मज्झिमनिकाय, २ ३. भगवती सूत्र, ११।१२।४३१ ४. महावग्ग ५. सूत्र कृतांग सूत्र, २०१५।१२०१६२५ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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