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भाषा और साहित्य ] शौरसेन प्राकृत और उसका वाङमय [ ६७५ 'विनय-समाधि नाम से है-उसकी प्रथम उक्ति है-यंमा व कोहा व मयप्प माया, गुरु सगासे विणयं न सिक्खे । उत्तराध्ययन सूत्र के प्रथम अध्ययन का नाम भी विनयश्रत है और वहां यही कहा जाता है—विणयं पाउ करिस्तामि, आशुपुब्विं सुणेह मे।
वजित कथा-जैनागमों में स्त्री-कथा, भक्त-कथा, देश-कथा, राज कथा की वर्जना 'मिलती है । दीघनिकाय के ब्रह्मजाल और सामाफल, इन दोनों प्रकरणों में ऐसी कथाओं को तिरच्छान कथा कहा है-तिरच्छान कथं; अनुयुक्तो विहरित सेय्यधदं राज कथं, चोरकथं, महानत कथं सेना कथं, भय कथं, युद्ध कथं, अन्न कथं, पान कथं ।
विशरण-चतुश्शरण-बौद्ध पिटकों व परम्परा में तीन शरण बहुत ही महत्वपूर्ण हैं, तो जैनागमों व परम्परा में चार शारण अपना अनन्य स्थान रखते हैं । ये तीन व चार शरण क्रमशः निम्न प्रकार हैं
बद्धसरणं गच्छामि
अरहन्ते सरणं पवज्जामि
संघं सरणं गच्छामि
सिद्ध सरमं पवज्जामि
धम्म सरणं गच्छामि
साह सरणं पवग्जामि केवली पन्नत धम्म सरणं पवज्जामि ।
णमोत्युणं—जैन आगमों का प्रसिद्ध स्तुति-वाक्य है-'णमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीरस्स ।' बौद्ध परम्परा का सूत्र है- "णमोत्युणं समणस्स भगवओ सम्यम् सम्बुद्धस्स ।'
नगर व देश-नालन्दा, राजगृह, कयंगला, श्रावस्ती आदि नगरों व अंग, मगध आदि देशों के नाम व वर्णन दोनों आगमों में समान रूप से मिलते हैं ।
जैनागम कहते हैं—व्यक्ति तीन उपकारक व्यक्तियों से उऋण नहीं होता-गुरु से, मालिक से और माता-पिता से । वहाँ यह भी बताया गया है कि अमुक प्रकार की पराकाष्ठा-परक सेवाएं दे देने पर भी वह अनृऋण ही रहता है। लगभग वही उक्ति बौद्ध आगमों में मिलती है । बुद्ध कहते हैं-भिक्षुओ, सौ वर्ष तक एक कन्धे पर माता को और एक कन्धे पर पिता को ढोए, और सौ वर्ष तक ही वह उनके उबटन, मर्दन आदि करता रहे, उन्हें शीतोष्ण जल से स्नान कराता रहे, तो भी न बह माता-पिता का उपकारक
१. ठाणांग सूख, ठा० ३
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