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भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका वाङमय [tor
बुद्धहि एवं पवेदितं ।। संखाई थम्म य वियागरंति बुद्धा हु ते अन्तकरा भवन्ति ।'
बौद्ध परम्परा में अर्हत् शब्द का प्रयोग इसी प्रकार पूज्यजनों के लिए किया गया है । स्वयं तथागत को स्थान-स्थान पर अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध कहा गया है । भगवान् बुद्ध के निर्माण के पश्चात् पांच सौ भिक्षुओं की जो सभा होती है, वहां प्रानन्द को छोड़कर चार सो निन्यानवे भिक्षु अर्हत् बतलाए गए हैं। कार्य-प्रारम्भ के अवसर तक आनन्द भी अर्हत् हो जाते हैं । बौद्धागमों में बुद्ध और जैनागमों में अर्हत् शब्द के तो अगणित प्रयोग हैं ही।
थेरे-स्थविर शब्द का प्रयोग दोनों ही परम्परामों में वृद्ध या ज्येष्ठ के अर्थ में हुआ है। जैन परम्परा में ज्ञान,वय, दीक्षा-पर्याय आदि को लेकर स्थविर के अनेक भेदप्रभेद किए गए हैं । बौद्ध परम्परा में बारह वर्ष से अधिक के सभी भिक्षुत्रों के नाम के साथ थेर या थेरो लगाया जाता है।
भन्ते-पूज्य और बड़ों को आमंत्रित करने में भन्ते (भदन्त) शब्द दोनों ही परम्पराओं में एक है । से कणह्रण भन्ते, राणं मन्ते, सेव भन्ते, सव्वं भन्ते आदि प्रयोग जैन आगमों के हैं। बौद्ध आगमों में भी भन्ते शब्द की अनहद बहुलता है।
आउसो-समान या छोटे के लिए आउस (आयुष्मान्) शब्द का प्रयोग दोनों परम्पराओं में समान रूप से मिलता है । भगवान् बुद्ध को भी 'माउस' गौतम कहकर सम्बोधित किया जाता था। गोशालक ने भी भगवान् महावीर को 'प्राउसो कासवा' कहा है।
श्रावक, उपासक,श्रमणोपासक-श्रावक शब्द का प्रयोग दोनों परम्पराओं में मिलता है। जैन परम्परा के अनुसार उसका अर्थ गृहस्थ उपासक है। बौद्ध परम्परा
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१. आचारांग सूत्र, ४।१।३४० २. सूत्रकृतांग सूत्र, १-१४-१८ ३. वीघनिकाय, सामञफल सुत्त, १२ ४. विनयपिटक, पंचशतिका स्कन्धक ५. भगवती सूत्र, शतक ७।३।२७९ ६. वही, शतक १५
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