________________
Inा और साहित्य शौरसेनी प्राकृत और उसका बाई मय । ६५५ महिषों को अचेतन किया जा सकता था और इससे धन पैदा कर सकते थे । प्रभावक चरित (५, ११५-१२७) में इस ग्रन्थ के बल से मछली और सिंह उत्पन्न करने का तथा विशेषावश्यक भाष्य (गाथा १७७५) की हेमचन्द्र कृत टीका में अनेक विजातीय द्रव्यों के संयोग से सर्प, सिंह आदि प्राणी और मणि, सुवर्ण आदि अचेतन पदार्थों के पैदा करने का उल्लेख मिलता है। कुवलयमालाकार के कथनानुसार जोणिपाहुड में कही हुई बात कभी असत्य नहीं होती। जिनेश्वरसूरि ने अपने कथाकोषप्रकरण में भी इस शास्त्र का उल्लेख किया है। इस ग्रन्थ में ८०० गाथाएं हैं । कुलमण्डनसूरि द्वारा विक्रम संवत् १४७३ (ईसवी सन् १४१६) में रचित विचारामृत संग्रह (पृष्ठ ९ पा) में योनिप्राभृत को पूर्व श्रुत से चला प्राता हुआ स्वीकार किया है :
अग्गेणिपुव्वनिग्गयपाहुडसस्थस्स मज्नयारंमि । किंचि उद्देसदेसं घरसेणो वज्जियं भणइ ॥ गिरि उजितठिएण पच्छिमदेसे सुरगिरिनयरे ।
बुडतं उद्धरियं दूसमकालप्पयामि ॥ प्रथम खण्डे
अट्ठावीस सहस्सा गाहाणं जत्थ वन्निया सत्थे। अग्गेणिपुग्वमसे संखेवं वित्थरे मुत्त ।
चतुर्थखण्डप्रान्ते योनिप्राभृते । इस कथन से ज्ञात होता है कि अग्रायणी पूर्व का कुछ अंश लेकर धरसेन ने इस ग्रन्थ का उद्धार किया है तथा इसमें पहले २८ हजार गाथाएं थीं, उन्हीं को संक्षिप्त करके योनिप्राभृत में कहा है। निष्कर्ष
उपयुक्त समग्र विवेचन के परिप्रेक्ष्य में धरसेन के समय के सम्बन्ध में हमारे समक्ष दो प्रकार की स्थितियां हैं। तिलोयपण्णत्ति, हरिवंश पुराण, धवला, जयधवला, श्रु तावतार आदि के अनुसार देखा जाये तो वीर निर्वाण ६८१ के पश्चात् इनका समय सिद्ध होता है और यदि नन्दिसंघ की प्राकृत-पट्टावली व जोणिपाहुड आदि के आधार पर चिन्तन करें तो वह वीर निर्वाण ६०० से कुछ पूर्व सिद्ध होता है। अर्थात् ईसा की प्रथम शती में वे हुए, ऐसा अनुमान किया जा सकता है। तिलोयपण्णत्ति आदि के अनुसार उनका समय लगभग
१. प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० ६७३-७४
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org