Book Title: Agam aur Tripitak Ek Anushilan Part 2
Author(s): Nagrajmuni
Publisher: Arhat Prakashan

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Page 715
________________ भाषा और साहित्य ] शौरसेनी प्राकृत और उसका नाममय (१६५ __प्रकृति-निरूपण के अन्तर्गत शील और स्वभाव का उल्लेख हुआ है, जिन्हें उसका पर्यायवाची कहा.गया है। यहां प्रकृति के चार भेद-नाम, स्थापना, द्रव्य तथा भाव-में द्रव्य-प्रकृति अर्थात् कर्म-द्रव्य-प्रकृति का उपर्युक्त सोलह अधिकारों के माध्यम से विशद विवेचन किया गया है। मुख्यतः पांचवें खण्ड का महत्वपूर्ण अधिकार बन्धनीय है । वहां उसका उसके अन्तर्गत २३ प्रकार की बर्गणाओं का, उनमें भी विशेषतः कर्म-बन्धयोग्य वर्गणाओं का सूक्ष्म तथा विस्तृत विश्लेषण हुआ है। बठा खण्ड महाबन्ध छठा खण्ड है। इसके सम्बन्ध में पहले संकेत किया ही गया है, आचार्य भूतबलि इसके रचयिता हैं। अपने ज्यायान् सतीर्थ्य आचार्य पुष्पदन्त द्वारा रचित सूत्रों को लेते हुए पांच खण्डों की रचना सम्पन्न कर प्राचार्य भूतबलि ने तीस-सहस्र-श्लोक-प्रमाण महाबन्ध रचा । इस सम्बन्ध में इन्द्रनन्दि ने तावतार में जो उल्लेख किया है, उसे पिछले पृष्ठों में, जहां षट्खण्डागम की सामान्यतः चर्चा की गई है, उपस्थित किया ही गया है। धवलाकार प्राचार्य वीरसेन ने जहां पांचवां--वर्गणा खण्ड समाप्त होता है, इस सम्बन्ध में उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है : "प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध तथा प्रदेशबन्ध के रूप में बन्ध-विधान चतुर्विध-चार प्रकार का है। भट्टारक भूतबलि ने महाबन्ध में इन चारों प्रकार के बन्धों का सप्रपंच-विस्तृत विवेचन किया है ; अतः हमने उसका यहां उल्लेख नहीं किया । इस सन्दर्भ में समग्र महाबन्ध यहां प्ररूपित है; अतः बन्ध-विधान समाप्त किया जाता है।"1 . , अस्तु, छठे खण्ड महाबन्ध में प्राचार्य भूतबलि द्वारा प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध तथा प्रदेशबन्ध का भेदोपभेदों सहित अनेक अपेक्षाओं से विस्तृत के साथ-साथ अत्यन्त सूक्ष्म न गहन विश्लेषण किया गया है । १. जं तं बंधविहाणं तं चउविहं, पयडिबंधो द्विविबंधो अनुभागबंधो पदेसबंधो चेवि। एवेसि चदुग्णं बंधाणं विहाणं भूतबलिभडारएण महाबंधे सप्पवंचेण लिहिवं ति भम्हेहि एत्थ ण लिहिवं । तदो सयले महाबंधे एत्थ परुविवे बंधविहाणं समप्पदि। -बदलण्डागम, खण्ड ५, भाग ४, पुस्तक १४, पृ० ५६४ ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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